Friday 23 September 2022

Jai Mahakaal: इस नवरात्रि में क्या उपाय करें और क्या है मुर्हुत ...

Jai Mahakaal: इस नवरात्रि में क्या उपाय करें और क्या है मुर्हुत ...: मित्रों जैसा की आप सभी जानते हैं कि 26 तारीख से शारदीय नवरात्रि का आरंभ होने वाला है नवरात्री के बारे में लिखने को तो बहुत है पर जो आम नागरि...

Thursday 18 June 2015

अघोरेश्वर भगवान राम जी


अघोरेश्वर भगवान राम जीः शिष्य समुदाय
अघोरेश्वर को पहचानकर उनकी शरण में आने वाले योगियों में से कुछ लोगों की विचित्रता ने जन मानस को गहरे तक प्रभावित किया था । उन्हीं बीर साधकों, सिद्धों, अवधूत पद पर प्रतिष्ठित औघड़ों के विषय में हम यहाँ चर्चा कर रहे हैं । अघोरेश्वर का आशीष इन साधकों को कितनी ऊँचाई प्रदान किया जानने लायक है ।
तपसी बाबा जी
छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में उँचे उँचे पर्वतों की उपत्यका में बगीचा नामक एक कस्बा बसा है । यहाँ की जलवायू पूरे छत्तीसगढ़ से अलग है । सभी दिशाओं में स्थित उँचे उँचे पर्वतों के कारण यहाँ सूर्योदय देर से तथा सूर्यास्त जल्दी हो जाता है । यहाँ की भूमि पर्वतों से उतरने वाली प्राकृतिक खाद से उपजाऊ तथा झरनों के जल से सिंचित है । पर्वतों से छनकर आती शीतल एवँ मन्द बयार इस क्षेत्र को निवास हेतु सुखकर एवँ स्वाश्थ्यप्रद बनाती है । इस क्षेत्र में ही एक आश्रम और है, जिसे कैलाशगुफा कहा जाता है । इस आश्रम की स्थापना सँत गहिरा गुरु जी महाराज ने किया था । आश्रम के अलावा देव वाणी संस्कृत के पठन पाठन हेतु एक रेसिडेंन्सियल स्कूल की स्थापना भी गहिरा गुरु जी ने किया है ।
बगीचा कस्बे के बीच में एक छोटा परन्तु सुन्दर सा आश्रम है । इसी आश्रम में तपसी बाबा निवास करते थे । क्षेत्र की जनता में बाबा का बड़ा सम्मान था ।
कहते हैं बाबा अपनी युवावस्था में ही गृह त्याग कर सन्यास ग्रहण कर लिये थे । साधना के क्रम में उन्होने सँकल्प लेकर चित्रकूट में भगवान काँतानाथ जी की परिक्रमा करने लगे । आपने सँकल्प बारह वर्ष की परिक्रमा का लिया था और परिक्रमा लगातार बारह वर्षोँ तक चलती भी रही थी । अभी परिक्रमा को बारह वर्ष पूर्ण होने में तीन दिन शेष रह गये थे कि इस कठोर तपश्चर्या के सुफल के रुप में आपको अघोरेश्वर भगवान राम जी का दर्शन प्राप्त हुआ । आपने अघोरेश्वर को पहचान लिया । आपने इतने वर्षों की कठोर तपश्चर्या , जिसे पूर्ण होने में मात्र तीन दिन ही शेष थे, छोड़ दिया और अघोरेश्वर का अनुगमन करने लगे । अघोरेश्वर की कृपा पाकर आपने कुछ ही समय में अपना इष्ट प्राप्त कर लिया ।
बाबा अब समाधि ले चुके हैं ।
अघोरेश्वर भगवान राम जीः शिष्य समुदाय
सन् १९६७ ई० के नेपाल भ्रमण के पश्चात बाबा जशपुरनगर के आश्रमों की व्यवस्था तथा अनुष्ठान आदि के लिये सोगड़ा चले गये । बाबा के पास विभिन्न मन्तव्य लेकर अनेकानेक लोग आने लगे थे । उनका ध्येय ज्यादातर लौकिक समृद्धि, आल औलाद, नौकरी चाकरी, शादी ब्याह आदि के लिये याचना करना और अघोरेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करना होता था । अघोरेश्वर इस बात से दुखी हो उठते थे । उनके पास अध्यात्म की विशाल सम्पदा थी और वे उस सम्पत्ति को मुक्त हस्त से बाँटना भी चाहते थे, पर उनके पास आने वालों में से ज्यादातर लोगों की रुचि अध्यात्म की ओर नहीं थी। उन्ही के बीच कुछ दिब्य आत्माओं ने भी बाबा से सम्पर्क साधा और उनका आशीर्वाद पाकर कृतकृत्य भी हुए । कतिपय ऐसी ही आत्माओं का संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ।
आदरणीय पारस नाथ जी सहाय
सहाय जी का जन्म पटना में हुआ था । पिता दीवान थे अतः आपका लालन पालन राजपरिवार में हुआ । गौर वर्ण, लम्बा, दुबला पर स्वस्थ काया, अजान बाहू, भेदक दृष्टी, आप दिब्य दर्शन पुरुष हैं । आप दो भाई हैं । आपकी बहनें भी दो थीं । सबसे बड़ी बहन आरा बिहार में ब्याही थी । दूसरी बहन पूर्व रायगढ़ जिला में जशपुरनगर में व्याही थी । दूसरी बहन के पास रहने के उद्देश्य से आप जशपुरनगर आ बसे तथा क्लर्क की सरकारी नौकरी करने लगे थे । सभी लोग इसीलिये आपको सहाय बाबू के नाम से ही जानते हैं ।
एकबार आपने बतलाया था कि “वे अभी किशोर ही थे । अपनी दीदी के यहाँ आरा गये हुए थे । वहीं अघोरेश्वर से उनकी भेंट किसी एकाँत जगह पर हो गई थी और गुरू का आशीर्वाद अनायास ही प्राप्त हो गया था । ”
बाद में आपकी शादी हो गई और आप जशपुरनगर आ गये थे । एक बार आपने लेखक को बतलाया था कि सोगड़ा आश्रम में आपका दीक्षा संस्कार हुआ था । आप उस समय के साधक हैं जब अघोरेश्वर मुक्तहस्त से साधनाएँ बाँटा करते थे । जिसने जो माँगा वह मिला । जिसने जो जानना चाहा बता दिया । बाद में तो बाबा भी ठोक बजाकर शिष्य बनाते थे और उसके पात्र के अनुसार ही साधना बतलाते थे ।इस लेखक की भेंट सहाय बाबू से सन् १९७२ ई० में हुई थी तथा आज भी सम्पर्क बना हुआ है । आदरणीय सहाय बाबू ने ही लेखक को अघोरेश्वर के चरणों में शरण लेने के लिये प्रेरित किया था ।
सहाय बाबू मुड़िया साधू तो नहीं हैं । गृहस्थ हैं , परन्तु योगी दीक्षा प्राप्त सम्पूर्ण योगी हैं । अघोरेश्वर के जशपुर आगमन के पश्चात प्रारंभिक शिष्यों में से एक सहाय जी गृहस्थ होते हुए भी साधू का जीवन जीते हैं । लेखक को सहाय बाबू को पास से देखने का अनेक बार अवसर मिला है । वे अत्यंत ही सादा जीवन जीते हैं । उनकी आवश्यकताएँ अत्यंत ही अल्प मात्रा में होती हैं । उनकी साधना बड़े ही गोपनीय ढ़ँग से चलती रहती है । यदि आप साथ हैं तो वे आपको कभी सोते हुए नहीं मिलेंगे । आज लगभग ७५ वर्ष की आयु में भी आप अधेड़ दिखते है तथा शरीर में वही चुस्तीफुर्ती विद्यमान है । चेहरे का तेज तो बस देखते ही बनता है ।
आदरणीय सहाय बाबू सिद्ध महात्मा हैं । उनके अनेक अलौकिक कृत्य लेखक ने देखा सुना है । आप ” आत्म चरितम् न प्रकाशयेत ” में विश्वास रखते हैं । आजकल आप साधारण गृहस्थ का जीवन जीते हुए रायगढ़, छत्तिसगढ़ में निवास कर रहे हैं ।अवधूत श्याम राम जी
आपका पूर्व नाम श्री विरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव था । आपका जन्म छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में धर्मजयगढ़ में हुआ था । आपका परिवार धर्मजयगढ़ का उच्च और सम्मानित कायस्थ परिवार है । आपका परिवार पढ़ा लिखा बुद्धिजीवीयों के परिवार के रुप में जाना जाता है । आप पूर्व धर्मजयगढ़ स्टेट में थानेदार के पद पर कार्यरत थे । स्टेट बिलय के पश्चात आप मलेरिया इन्स्पेक्टर के पद पर कार्य करने लगे । आप शुरू से ही नैतिकवान तथा सच्चरित्र अधिकारी के रुप में विख्यात थे ।
एक बार अपनी नौकरी के सिलसिले में दौरा करते समय आपको जँगल में अघोरेश्वर भगवान राम जी का दर्शन लाभ हो गया । दर्शन लाभ होते ही आपका मन सँसार से उचाट हो गया । आप नौकरी छोड़कर अघोरेश्वर की शरण में सोगड़ा आश्रम पहुँच गये । आपके साधु बनने के समय पत्नि, सन्तान, भाईयों सहित भरा पूरा परिवार था । परिवार ने भी प्रसन्नतापूर्वक आपको अपने पारिवारिक दायित्वों से मुक्त कर साधु जीवन स्वीकारने में सहयोग प्रदान किया था ।
दीक्षा के उपराँत आपका नाम श्याम बाबा अघोरी हो गया । आप यौगिक क्रियाओं में अत्यँत ही प्रवीण थे । आपकी गुरु निष्ठा अद्वितीय थी । क्षेत्रीय जनता के लिये आप बड़े विचित्र अघोरी थे । आपने ज्यादातर समय जशपुरनगर के पास स्थित ” गम्हरिया आश्रम ” में ही बिताया था ।
इस लेखक को धर्मजयगढ़ निवास काल में यदाकदा श्याम बाबा के आतिथ्य का सुयोग मिलता था । चर्चा भी होती थी । आप सदैव लेखक को अघोरेश्वर के और निकट जाने तथा साधना हेतु मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिये अभिप्रेरित किया करते थे । आप कहा करते थे ” दौड़िये पण्डा जी दौड़िये, बाद में मौका नहीं मिलेगा । ” आपकी बात सच हो गई ।
श्याम बाबा देश के विभिन्न राज्यों में बहुत घूमे हैं । आपको भूतपूर्व राज परिवारों से सम्मान और सहयोग मिलता रहता था ।
एक बार साधना विषयक चर्चा में आपने लेखक को बतलाया थाः
” वे हमारी साधना के प्रारंभिक दिन थे । गुरु का आदेश हुआ कि जाइये भ्रमण कीजिये । यह भी आदेश था कि भ्रमण में पैसा को नहीं छूना है । हम भ्रमण पर निकल पड़े । पास में कुछ था नहीं । कपड़ा लत्ता हमने लिया नहीं । जशपुर बस स्टैण्ड पर राँची जाने वाली बस खड़ी थी । कण्डक्टर पहचानता था । पूछाः “बाबा कहाँ जाइयेगा ? ।” हम कहेः ” चलते हैं ! जहाँ मन करेगा उतर जायेंगे ।” हम बस में सवार हो गये । बस चली । रास्ते में मन विरक्त होने लगा । एक बस स्टाप पर हम उतर गये ।
जहाँ हम उतरे थे वह छोटा सा गाँव था । हमें कोई पहचानता नहीं था । हम किधर जावें सोचते सड़क पर खड़े थे । हमने देखा कि एक ओर हरियाली दिख रही है । हम उधर ही पैदल चलने लगे । साँझ को किसी श्मशान में रात बिताने के लिये ठहर जाते । भोर में फिर चल पड़ते । कोई खाना दे देता तो खा लेते नहीं तो दो, दो तीन दिन तक जल पीकर गुजारा करना पड़ जाता था । उस समय हम तिथि, वार, दिशा , समय से मुक्त हो गये थे । पता नहीं कितने दिनों के बाद बाबा का आदेश मिला और हम गम्हरिया आश्रम लौट आये ।”
श्याम बाबा की अँतिम यात्रा भी विचित्र ढ़ँग से हुई थी ।
“उन दिनों अघोरेश्वर गम्हरिया आश्रम में ही थे । एक दिन प्रातःकाल में श्याम बाबा अघोरेश्वर के निकट उपस्थित हुए । उन्होने दोनो हाथ जोड़कर अघोरेश्वर के चरणों में प्रणिपात करने के बाद निवेदन किया कि वे भ्रमण में जाना चाहते हैं । अघोरेश्वर कुछ काल तक श्याम बाबा को अपलक देखते रहे, फिर पास खड़े एक सेवादार से कहा कि वे जाकर उनका बड़ा वाला टार्च ले आवें । टार्च आ जाने के बाद अघोरेश्वर ने श्याम बाबा को पास बुलाया और टार्च देते हुए कहा कि लीजिये रास्ता देखने में काम आयेगा ।
श्याम बाबा गुरू की आज्ञा पाकर भ्रमण में निकल पड़े । कुछ दिनों के पश्चात आप बगीचा नामक कस्बे में अपने भक्त के यहाँ पहुँचे । भक्त बड़ा आनन्दित हुआ । दुसरे दिन प्रातः पद्मासन में बैठकर आपने यौगिक क्रिया द्वारा शरीर से प्राण को मुक्त कर दिया ।”
श्याम बाबा की समाधि का समाचार सुनकर अघोरेश्वर भी उदास हो गये थे ।
अघोरेश्वर भगवान राम जीः भ्रमण
प्रकृति के अवयव गुणों के भीतर रचित हैं । गुण तीन हैं । १, सत्वगुण २, रजोगुण ३, तमोगुण । गुण विभाग से यह सृष्टि है अतः सर्वत्र तीनों गुण विद्यमान हैं । जिस गुण की विद्यमानता जहाँ अधिक परिमाण में होती है वहाँ उसका प्रभाव सहज दृष्टिगोचर होता है, बाकी दो गुण रहते तो हैं परन्तु गौण रूप से । प्रभावहीन या अल्प प्रभाववान । सत्वगुण प्रभावान्वित स्थलों पर गुण प्रभाव के चलते व्यक्ति का हृदय, देह, मन आदि शुद्ध हो जाता है । ऐसे स्थलों को तीर्थ कहते हैं ।
कुछ स्थान स्वाभाविक सत्व गुण प्रधान हैं, जैसे कि ” वाराणसी, तीर्थ राज प्रयाग, पुरी, आदि” । जिन स्थलों पर ॠषि लोग तपस्या कर चुके हैं, जहाँ साधकों ने उच्चतर शक्ति आहरित किया है, जहाँ पर सन्त, महापुरुष, अघोरेश्वर उपदेश देते रहे हैं, ज्ञान संचार या दीक्षा संस्कार करते रहे हैं , सिद्ध अवस्था या परमतत्व को प्राप्त कर लिया है, किसी महापुरुष का जन्म या निर्वाण हुआ है, ऐसे सभी स्थल उक्त निमित्त के कारण सत्वगुण प्रधान हो गये हैं । जिन लोगों में शक्ति अनुभव की क्षमता है, उन स्थलों में जाकर उन्मुक्त भाव से बैठते हैं तो स्पन्दन होता है, क्रियाएँ होती हैं, मन उर्घ्वगतिमान होता है । ये सभी स्थल भी तीर्थ हैं ।
उपरोक्त तीर्थ स्थावर तीर्थ कहलाते हैं । इनके अलावा दो प्रकार के तीर्थ और होते हैं । वे हैं, १, मानस तीर्थ २, जँगम तीर्थ ।
मानस तीर्थ के लिये कहीं जाना आना नहीं पड़ता । ये मनुष्य के मानसिक गुण हैं । ये हैं, सत्य, दया, परोपकार, अहिंसा, क्षमा आदि । इनमें से एक तीर्थ में स्नान कर लेने वाला व्यक्ति भी सिद्ध हो जाता है । महाराज हरिश्चन्द्र ने सत्य की, महाराज शिवि ने त्याग की साधना करके ही परमपद प्राप्त कर लिया था । राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने पूर्व जन्मों में बोधिसत्व रुप में इन्ही मानस तीर्थों की परमिति साधकर दश पारमिताएँ प्राप्त करके बुद्धत्व प्राप्त किया था ।
मनुष्य रुप में जन्म लेकर जिन्होंने त्याग, तपस्या, ज्ञान, विज्ञान, योग, उपासना, भक्ति तथा मानस तीर्थों में अवगाहन कर सिद्ध हो चुके हैं ऐसे समस्त संतों को जँगम तीर्थ कहते हैं । सदगुरु जँगम तीर्थ हैं । ऐसे जँगम तीर्थों से सम्पर्क करने से, सानिध्य में रहने से, मेधा शुद्ध होती है, आत्मा का उन्नयन होता है, मन निर्मल एवं निश्छल होता है । वृत्तियाँ भी सुकोमल होकर सात्विक हो जाती हैं ।
भारतवर्ष में तीर्थ यात्रा और परिभ्रमण का बड़ा महत्व माना गया है ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी ने मानस तीर्थों का अवगाहन अब तक कर चुके थे, उनकी पारमिता भी सिद्ध कर लिया था । अब उन्होंने देश की प्राचीन सन्त परिपाटी का अनुगमन करते हुए समग्र पृथ्वी के स्थावर और जँगम तीर्थों का साक्षात्कार करने का निश्चय किया । वैसे तो साधना काल में ही आप मुख्य मुख्य तीर्थों की यात्रा कर चुके थे । कभी भी वे एक जगह स्थायी निवास नहीं करते थे । आगे बढ़ते जाना उनके स्वभाव में था ।
२१ सितम्बर सन् १९६१ ई० को श्री सर्वेश्वरी समूह की स्थापना हो चुकी थी । बाबा का तीर्थाटन चित्रकूट यात्रा से शुरु हो चुका था । सन् १९६२ ई० के मध्य तक औघड़ भगवान राम कुष्ठ सेवा आश्रम, पड़ाव वाराणसी में कुष्ठ अस्पताल बाबा का निवास बन गया । बाबा ने पड़ाव में निवास करना शुरु भी कर दिया । आनेवाले भक्तों श्रद्धालुओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी ।
चित्रकूट यात्रा
इस यात्रा में कालिंजर की भैरवी के आग्रह पर घोरा देवी के मन्दिर में एक अनुष्ठान सम्पन्न हुआ था । इस अनुष्ठान में अघोरेश्वर भगवान राम जी के साथ अघोराचार्य श्री सोमेश्वर राम जी, भरतमिलाप के महन्थ तथा भैरवी ने सक्रिय भूमिका का निर्वहन किया था । चक्रार्चन के समय आकाशगामिनी भैरवियाँ भी शामिल हुईं थीं ।
बाबा की यह यात्रा एक सप्ताह तक चली ।
नेपाल यात्रा
सन् १९६८ ई० के फागुन मास मे शिवरात्री के समय यह यात्रा हुई थी । बाबा की यह यात्रा इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि आज जो श्री परमेश्वरी सेवा केन्द्र, काठमान्डु, श्री माँ गुरु नारी समूह, काठमान्डु आदि देखते हैं उसका बीजारोपण इसी यात्रा के द्वारा हुआ था ।
अवधूत सिंह शावक राम
कहा जाता है कि अघोरेश्वर भगवान राम जी के प्रथम सन्यासी शिष्य होने का गौरव औघड़ सिंह शावक राम जी को ही है । आपका जन्म बिहार राज्य में भोजपुर जनपद के पाथर नामक गाँव में जगत प्रसिद्ध महाराज बिक्रमादित्य के कुल में सन् १९२१ ई० को हुआ था । आप कोलकाता विश्वविद्यालय के स्नातक थे । आप गुरु अघोरेश्वर भगवान राम जी से भेंट के पहले विभिन्न जागतिक प्रश्नों के समाधान के लिये हिमालय की उपत्यकाओं में स्थित विभिन्न प्रदेशों की अनेक बार यात्रा कर चुके थे । इन यात्राओं में अनेक साधु, सन्त महात्मा से हुई भेंट आपको आपके प्रश्नो का उत्तर नहीं दिला सकी । आप थक हारकर घर बैठ गये ।
सन् १९६६ ई० में आपको सदप्रेरणा हुई और आप अघोरेश्वर भगवान राम कुष्ठ सेवा आश्रम , पड़ाव , वाराणसी पहुँच गये । आश्रम के मन्दिर में भगवती की आराधना करते हुए आपको आश्चर्यजनक अनुभूति हुई । आपने निश्चय कर लिया कि अपने पिछले जीवन को विराम देकर गुरु चरणों में शरण पायेंगे । बाबा की कृपा हुई और कुछ ही समय के पश्चात आपका दीक्षा संस्कार हो गया ।
कुछ काल तक आप गुरु चरणों में विधिवत अघोर साधना बिषयक शिक्षा ग्रहण करते रहे, फिर गुरु ने आपको आदि आश्रम हरिहरपुर भेज दिया । आप हरिहर आश्रम में दस वर्षों तक रहे । आपने अपनी समस्त साधना, अनुष्ठान यहीं रहकर पूर्ण किया । साधना की अवधि बीत जाने के पश्चात आपको गुरु ने मुक्त कर दिया । आप यात्रा पर निकल पड़े ।
आपने सन् १९७७ ई० में दिलदारनगर , गाजीपुर में गिरनार आश्रम की स्थापना कर ” अघोर सेवा मण्डल ” नामक एक संस्था बनाया । इसके पश्चात आपने अनेक जगहों पर आश्रम, कुटिया का निर्माण कराया । अघोर सेवा मण्डल प्राकृतिक विपदा के समय सेवा का उत्कृष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करता रहा है ।
शावक बाबा को सदैव नेपाल आकर्षित करता रहा है । उन्होने अनेक बार नेपाल की यात्रा की थी । नेपाल के आश्रमों का निर्माण की प्रेरणा आपने ही दी ।
अवधूत सिंह शावक राम जी ने अपना अँतिम समय मसूरी , हिमाचल प्रदेश में निर्मित ” हिमालय की गोद” आश्रम में बिताया । ११ सितम्बर सन् २००२ ई० को आपने शिवलोक गमन किया ।
अघोरपथ के प्रसिद्ध स्थल
चित्रकूट
अघोर पथ के अन्यतम आचार्य, भगवत स्वरुप दत्तात्रेय जी की जन्मस्थली चित्रकूट सभी के लिये तीर्थस्थल है । औघड़ों की कीनारामी परम्परा का उत्स यहीं से हुआ माना जाता है । माता अनुसूया जी का आश्रम तथा शरभंग ॠषि जो एक सिद्ध अघोराचार्य थे, का आश्रम, अघोर साधकों के लिये साधना की भूमि प्रदान करते हैं । यहाँ का स्फटिक शिला नामक महा श्मशान तथा पार्श्व में स्थित घोरा देवी का मन्दिर हमेशा से अघोर साधकों को आकर्षित करता रहा है । कहा जाता है कि स्फटिक शिला श्मशान में भगवान राम चन्द्र जी ने माता सीता का भगवती रुप में पूजन किया था और उसी उपलब्धि से वे असुरों का विनाश कर भारत में रामराज्य स्थापित करने में सफलमनोरथ हो सके थे ।
कवि रहीम खानखाना ने शासक का कोप भाजन बनने पर अपना अज्ञातवास काल यहीं पर बिताया था और कहा थाः
“चित्रकूट में रमि रहै रहिमन अवध नरेस ।
जापै विपदा पड़त है सो आवत यहि देस ।।”
अघोरेश्वर भगवान राम जी ने कई बार चित्रकूट की यात्रा की थी ।
प्रभासपत्तन
कलियुग के प्रारम्भ में यादवों ने आपस में लड़कर इसी स्थान पर अपने कुल का नाश कर लिया था । बाद में बाहरी आक्रान्ताओं ने यहाँ पर स्थित सोमनाथ मन्दिर की सम्पत्ति लूटने की गरज से अनेक बार आक्रमण कर व्यापक नर संहार किया । भयंकर नरसंहार होने के कारण यह एक महा श्मशान है । इस श्मशान में एक औघड़ आश्रम प्रतिष्ठित है जहाँ रहकर अनेक साधक तप करते रहते हैं । यहाँ भगवान सोमनाथ विराजते हैं ।
अघोरीकिला
बिहार में चोपन शहर के पास एक बहुत पुराने किले का अवशेष आज भी विद्यमान है । यह कालिंजर का किला पंद्रहवीं सदी से ही निर्जन प्राय रहता आया है । तभी से इस निर्जन किले को अघोरियों ने अपनी साधनास्थली बना रखा है । अभी कुछ वर्ष पहले तक एक सिद्ध अघोराचार्य की कीर्ति सुनने में आती थी । आजकल कुछ एक साधक यहाँ रहकर अपनी साधना में लगे रहते हैं । कुछ भैरवियों की उपस्थिति के भी प्रमाण मिलते हैं ।
जगन्नाथ पुरी
जगत प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर और विमला देवी मन्दिर, जहाँ सती का पाद खण्ड गिरा था, के बीच में एक चक्र साधना वेदी अवस्थित है । यह वेदी वशिष्ठ वेदी के नाम से प्रसिद्ध है । इसके अलावा पुरी का स्वर्गद्वार श्मशान एक पावन अघोर स्थल है । इस श्मशान के पार्श्व में माँ तारा मन्दिर के खण्डहर में ॠषि वशिष्ठ के साथ अनेक साधकों की चक्रार्चन करती हुई प्रतिमाएँ स्थापित हैं ।
श्री जगन्नाथ मन्दिर में भी श्रीकृष्ण जी को शुभ भैरवी चक्र में साधना करते दिखलाया गया है ।
कालीमठ
हिमालय तो सदा दिन से साधकों में आकर्षण जगाता आया है । कितने, किस कोटी के,और कैसे कैसे साधक हिमालय में साधनारत हैं कुछ कहा नहीं जा सकता । नैनीताल से आगे गुप्तकाशी से भी ऊपर कालीमठ नामक एक अघोर स्थल है । यहाँ अनेक साधक रहते हैं । कालीमठ में अघोरेश्वर भगवान राम जी ने एक बहुत बड़ा खड्ग स्थापित किया है । यहाँ से ५००० हजार फीट उपर एक पहाड़ी पर काल शिला नामक स्थल है जहाँ मनुष्य और पशु कठिनाई से पहुँच पाते हैं । कालशिला में भी अघोरियों का वास है ।
मदुरई
दक्षिण भारत में औघड़ों को ब्रह्मनिष्ठ कहा जाता है । यहाँ कपालेश्वर का मन्दिर है साथ ही ब्रह्मनिष्ठ लोगों का आश्रम भी है । आश्रम के प्राँगण में एक अघोराचार्य की मुख्य समाधि है । और भी समाधियाँ हैं । मन्दिर में कपालेश्वर की पूजा औघड़ विधि विधान से की जाती है ।
उपरोक्त स्थलों के अलावा अन्य जगहों पर भी जैसे रामेश्वरम, कन्याकुमारी, मैसूर, हैदराबाद, बड़ौदा, बोधगया आदि अनेक औघड़, अघोरेश्वर लोगों की साधना स्थली, आश्रम, कुटिया पाई जाती है ।
कतिपय अन्य देशों में भी औघड़ , अघोरेश्वर ने भ्रमण के क्रम में जाकर मौज में आकर अपना निवास बना लिया है ।
नेपाल
नेपाल में तराई के इलाके में कई गुप्त औघड़ स्थान पुराने काल से ही अवस्थित हैं । अघोरेश्वर भगवान राम जी के शिष्य बाबा सिंह शावक राम जी ने काठमाण्डु में अघोर कुटी स्थापित किया है। उन्होने तथा उनके बाद बाबा मंगलधन राम जी ने समाज सेवा को नया आयाम दिया है। कीनारामी परम्परा के इस आश्रम को नेपाल में बड़ी ही श्रद्धा से देखा जाता है ।
अफगानिस्थान
अफगानिस्तान के पूर्व शासक शाह जहीर शाह के पूर्वजों ने काबुल शहर के मध्य भाग में कई एकड़ में फैला जमीन का एक टुकड़ा कीनारामी परम्परा के संतों को दान में दिया था । इसी जमीन पर आश्रम, बाग आदि निर्मित हैं । औघड़ रतन लाल जी यहाँ पीर के रुप में आदर पाते हैं । उनकी समाधि तथा अन्य अनेक औघड़ों की समाधियाँ इस स्थल पर आज भी श्रद्धा नमन के लिये स्थित हैं ।
अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल
बिंध्याचल
बिंध्य की पर्वत श्रृँखला एवं उसमें अवस्थित माँ बिंध्यवासिनी का शक्तिपीठ भारत ही नहीं अपितु समग्र विश्व में प्रसिद्ध है । मिरजापुर इस स्थल का रेलवे स्टेशन है, जहाँ से इसकी दूरी मात्र आठ किलोमीटर है । सड़क मार्ग से यह स्थान बनारस, इलाहाबाद, मऊनाथभंजन, रीवा, और औरंगाबाद से जुड़ा हुआ है । बनारस से ७० किलोमीटर तथा इलाहाबाद से ८३ किलोमीटर की दूरी पर बिंध्याचल धाम स्थित है । कहा जाता है कि महिषासुर बध के पश्चात माता दूर्गा इसी स्थान पर निवास हेतु ठहर गईं थीं, इसीलिये यहाँ की अधिष्ठात्री देवी माता दूर्गा को बिंध्यवासिनी के रुप में पूजन किया जाता है । इस स्थल में तीन मुख्य मन्दिर हैं । विन्ध्यवासिनी, कालीखोह और अष्टभुजा । इन मन्दिरों की स्थिति त्रिकोण यन्त्रवत् है । इनकी त्रिकोण परिकरमा भी की जाती है । इस पर्वत में अनेक गुफाएँ हैं, जिनमें रहकर साधक साधना करते हैं । आज भी अनेक साधक , सिद्ध, महात्मा, अवधूत, कापालिक आदि से यहाँ भेंट हो सकती है । इनके अलावा इस स्थल में सैकड़ों मन्दिर बिखरे पड़े हैं ।
बिंध्याचल पर्वत में तीन मुख्य कुण्ड हैं । प्रथम सीताकुण्ड है । कहते हैं रावण बध के पश्चात भगवान रामचन्द्र जी की वापसी यात्रा के समय भगवती सीता जी को बड़ी प्यास लगी । रामअनुज लक्ष्मण जी के तीर चलाने से इस कुण्ड का निर्माण हुआ और भगवती सीता माई की प्यास का शमन हुआ । यहीं से मन्दिर के लिये सीढ़ियाँ जाती हैं । पहले अष्टभुजा मन्दिर है । अष्टभुजा मन्दिर में ज्ञान , विवेक की देवी माता सरस्वती बिराजती हैं । उससे उपर कालीखोह है । यह स्थान यथा नाम काली जी का है । फिर आता है बिंध्याचल का मुख्य मन्दिर माता बिंध्यवासिनी मन्दिर ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी अपने साधना काल में कई वर्षों तक बिंध्याचल में रहे थे । बिंध्याचल में अष्टभुजा मन्दिर से कालीखोह की तरफ थोड़ी दूरी पर एक स्थान आता है, भैरव कुण्ड । यहाँ से प्रायः तीन सौ मीटर की उँचाई पर एक गुफा है । इसी गुफा में अघोरेश्वर रहते थे । आपको याद होगा इसी गुफा में जशपुर के महाराजा स्वर्गीय बिजयभूषण सिंह देव ने अघोरेश्वर का प्रथम दर्शन किया था । बाबा के इस स्थल पर निवास, तपस्या की स्मृति में एक कीर्ति स्तम्भ स्थापित किया गया है, जिसके चारों ओर बाबा के संदेश अँकित हैं । गुफा के भीतर भक्तों, श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ अघोरेश्वर की चरण पादुका एक चट्टान में जड़ दी गई है । यहाँ कई एक साधक आकर नाना प्रकार की साधनाएँ करते और अघोरेश्वर की कृपा से सिद्धी पाकर कृतकृत्य होते हैं ।
भैरवकुण्ड के स्वामी अक्षोभ्यानन्द सरस्वती , जो अघोरपथ के पथिक तो नहीं थे, परन्तु आचार, व्यवहार, शक्ति,और विद्या के मामले में अधिकारी विद्वान थे । स्बामी जी शाक्त परम्परा के कुलावधूत थे । आपको वाक् सिद्धी थी । आपकी प्रसिद्धी दूर दूर तक थी । गृहस्थ से तप के मार्ग में चलकर जिन गिनेचुने महान आत्माओं ने अध्यात्म की उच्चावस्था को प्राप्त किया है, उनमें से एक भैरवकुण्ड के स्वामी अक्षोभ्यानन्द सरस्वती जी भी हैं ।
अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल
तारापीठ
इस स्थान पर दक्ष यज्ञ विध्वंश के पश्चात मोहाविष्ट शिव जी के कंधों से शिव भार्या दाक्षायणी, सती की आँखें भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से कटकर गिरी थीं, इसीलिये यह शक्तिपीठ बन गया और इसीलिये इसे तारापीठ कहते हैं । मातृ रुप माँ तारा का यह स्थल तांत्रिकों, मांत्रिकों, शाक्तों, शैवों, कापालिकों, औघड़ों आदि सब में समान रुप से श्रद्धास्पद, पूजनीय माना जाता है ।
शताब्दियों से साधकों, सिद्धों में प्रसिद्ध यह स्थल पश्चिम बँगाल के बीरभूम अँचल में रामपुर हाट रेलस्टेशन के पास द्वारका नदी के किनारे स्थित है । कोलकाता से तारापीठ की दूरी लगभग २६५ किलोमीटर है । यह स्थल रेलमार्ग एवं सड़क मार्ग दोनो से जुड़ा है । इस जगह द्वारका नदी का बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर है, जो कि भारत में सामान्यतः नहीं पाया जाता । नाम के अनुरुप यहाँ माँ तारा का एक मन्दिर है तथा पार्श्व में महाश्मशान है । द्वारका नदी इस महाश्मशान को चक्राकार घेरकर कच्छपपृष्ट बनाते हुए बहती है ।
यह स्थल तारा साधन के लिये जगत प्रसिद्ध रहा है । पुरातन काल में महर्षि वशिष्ठ जी इस तारापीठ में बहुत काल तक साधना किये थे और सिद्धि प्राप्त कर सफल काम हुए थे । उन्होने इस पीठ में माँ तारा का एक भव्य मन्दिर बनवाया था जो अब भूमिसात हो चुका है । कहते हैं वशिष्ठ जी कामाख्या धाम के निकट नीलाचल पर्वत पर दीर्घकाल तक संयम पूर्वक भगवती तारा की उपासना करते रहे थे , किन्तु भगवती तारा का अनुग्रह उन्हें प्राप्त न हो सका, कारण कि चीनाचार को छोड़कर अन्य साधना विधि से भगवती तारा प्रसन्न नहीं होतीं । एकमात्र बुद्ध ही भगवती तारा की उपासना और चीनाचार विधि जानते हैं । महर्षि वशिष्ठ , यह जानकर भगवान बुद्ध के समीप उपस्थित हुए और उनसे आराधना विधि एवं आचार का ज्ञान प्राप्तकर इस पीठ में आये थे । बौधों में बज्रयानी साधक इस विद्या के जानकार बतलाये जाते हैं । औघड़ों को भी इस विद्या की सटीक जानकारी है ।
वर्तमान मन्दिर बनने की कथा दिलचस्प है । कथा इस प्रकार है
” जयब्रत नाम के एक व्यापारी थे । उनका इस अँचल में लम्बाचौड़ा व्यापार फैला हुआ था । श्मशान होने के कारण तारापीठ का यह क्षेत्र सुनसान हुआ करता था । भय से लोग इधर कम ही आते थे । विशेष दिनों में इक्का दुक्का साधक इस ओर आते जाते दिख जाया करते थे । व्यापार के सिलसिले में जयब्रत को प्रायः इस क्षेत्र से गुजरना पड़ता था । एक बार जयब्रत को पास के गाँव में रात्रि विश्राम हेतू रुकना पड़ा । ब्राह्म मुहुर्त में जयब्रत को स्वप्न में माँ तारा के दर्शन हुए । माँ ने आदेश दिया कि श्मशान की परिधि में धरती के नीचे ब्रह्मशिला गड़ा हुआ है । उसे उखाड़ो और वहीं पर विधिपूर्वक प्राण प्रतिष्ठित करो । स्वप्न में प्राप्त आदेश के अनुसार जयब्रत ब्रह्मशिला उखड़वाया और वर्तमान मन्दिर का निर्माण कराकर माँ तारा की भव्य मूर्ति स्थापित किया ।”
मातृरुपा माँ तारा की मूर्ति दिव्य भाव लिये हुए है । माता ने अपने वाम बाजु में शिशु रुप में शिव जी को लिया हुआ है । शिव जी माता के वाम स्तन से दुग्धामृत का पान कर रहे हैं और माता के स्नेहसिक्त नयन अपलक शिशु शिव जी को निहार रहे हैं । कहते हैं समुद्र मँथन से निकले विष का देवाधिदेव भगवान शिव जी ने पान कर संसार की रक्षा की थी । इस विषपान के प्रभाव से भगवान शँकर को उग्र जलन एवं पीड़ा होने लगी । कोई उपाय न था । माता ने तब शिव जी को इस प्रकार अपना स्तनपान कराकर उन्हें कष्ट से त्राण दिलाया था । इसीलिये माँ को तारिणी भी कहते हैं ।
अघोराचार्य बामाखेपा
तारापीठ में साधना कर अनेक सिद्धियाँ हस्तगत करने वाले एक महान अघोराचार्य हो गये हैं । उनका नाम है ” वामाक्षेपा” । बंगाल के बीरभूम जिलान्तर्गत अतला ग्राम में सर्वानन्द चट्टोपाध्याय एवं श्रीमति राजकुमारी के घर आपका जन्म सन् १८३७ ई० में हुआ था । माता, पिता ने आपका नाम रखा था बामा । बामा चट्टोपाध्याय । आप जन्मना सिद्ध पुरुष थे । माता पिता ने आपको स्कूल भेजा , लेकिन पढ़ाई की ओर आपका ध्यान नहीं था । बचपन से ही आप आँख मूँदकर घँटों चुपचाप बैठे रहते थे । आप सांसारिक नियमों की अवहेलना करने के कारण ग्रामवासियों के द्वारा पागल घोषित कर दिये गये और आपके नाम बामा के साथ खेपा, जिसका अर्थ पागल होता है, जोड़ दिया गया ।
किशोर बामा रात के किसी समय पड़ोसियों के घर से देवताओं की मुर्तियाँ चुराकर पूरी रात पूजा किया करते थे । सुबह मुर्तियों की चोरी के कारण बामा को कड़ा दण्ड भुगतना पड़ता परन्तु वे अगली रात फिर वही काम करते । इसीबीच आपके पिता का स्वर्गवास हो गया । परिवार तो पहले ही गरीब था, अब तो फाके की नौबत आ गयी । बामा कोई भी कार्य करने के योग्य न थे, क्योंकि वे कभी भी अपना होश गँवा बैठते थे । ऐसा कभी भी हो जाता था । कभी लाल फूल देखकर तो कभी कुछ और , उन्हें माँ तारा की स्मृति हो आती थी और वे समाधि में चले जाते थे । अब तो उनकी माता ने भी मान लिया कि उनका पुत्र पागल हो चुका है । माता ने बामा को घर के अँदर बन्द करके रख दिया, परन्तु बामा कहाँ मानने वाले थे । वे रात में चुपचाप दरवाजा खोलकर घर से भाग निकले और द्वारका नदी को तैरकर तारापीठ के महाश्मशान में पहुँच गये ।
बामाखेपा को तारापीठ के महाश्मशान के पार्श्व में कुटी बनाकर साधनरत बाबा कैलाशपति ने अपना शिष्य स्वीकार कर ताँत्रिक विधि विधान सिखाने लगे । आपकी माता द्वारा पुत्र बामा को वापस लौटा ले जाने के सभी प्रयास बिफल हो जाने पर तारा मन्दिर में फूल एकत्र करने के काम पर लगवा दिया गया । आपसे यह काम नहीं सधा । आप अपने आप में डूबे तारापीठ के महाश्मशान में ,जहाँ बिषधर, श्रृगाल, कुत्तों और अन्य बनैले जन्तुओं के साथ रहने लगे । आपको भावावेश की अवस्था में रात, दिन, शीत, गर्मी, आदि कुछ नहीं भाषता था । आप आठों प्रहर माँ तारा के ध्यान में निमग्न रहते थे ।
इस प्रकार एक लम्बा समय बीत गया । आपकी साधना चलती रही । तारापीठ का महाश्मशान बाबा बामाखेपा को परम सत्य को उपलब्ध होते देखता रहा । बाबा का माँ तारा की भक्ति में रोज आनन्दोत्सव होता । बाबा कभी नाचते, कभी गाते और कभी अजगर वृत्ति से पड़े रहते किसी कोने में । बाबा को अब शरीर का भी ध्यान नहीं रह गया था । कमर में लिपटा वस्त्र कब निकल कर गिर जाता उन्हें पता ही नहीं चलता था । वे अवधूत अवस्था में दिगम्बर ही घूमते रहते ।
बाबा का अपनी लौकिक माता के साथ कोई सम्पर्क नहीं रह गया था, परन्तु माँ से वे बहुत प्यार करते थे । अपनी जन्मदात्री को वे माँ तारा के जैसा ही मानते थे । माँ के स्वर्गवास के समय यह बात सिद्ध भी हो गई थी । कहते हैः
” बाबा बामाखेपा को सूचना मिली कि जन्मदात्री माता का स्वर्गवास हो गया । उस समय घनघोर वर्षा हो रही थी । द्वारका नदी उफान पर थी । माता के शव को अँतिम संस्कार के लिये तारापीठ के महाश्मसान तक लाना असंभव हो गया । सगे सम्बन्धी सब किंकर्तब्यविमूढ़ की स्थिति से उबर ही नहीं पा रहे थे । बाबा उफनती द्वारका नदी को तैरकर पार किये और अपने गाँव ” अतला” जाकर माता के शव को कँधे में लेकर फिर बाढ़ भरी द्वारका नदी को तैरकर पार करके तारापीठ के महाश्मशान में ले आये । पीछे से सब सगे सम्बंधी भी आ गये । उन्होने अपने भाई रामचरन से माता का अँतिम संस्कार कराया । जनश्रुति है कि बाबा की माता के शवदाह के समय चारों ओर घनघोर वर्षा हो रही थी, परन्तु शवदाह के लिये एकत्रित जनों पर एक बूँद भी पानी नहीं गिरा ।”
तारापीठ का यह पागल संत अब अनेक सिद्धियों का स्वामी हो गया था । आसपास के लोग बाबा के पास बड़ी संख्या में आने लगे थे । अनेक लोगों का बाबा के आशीर्वाद से कष्टनिवारण भी हो जाया करता था । बाबा के चमत्कार की, अलौकिक क्रियाकलाप की अनेक कथाएँ कही सुनी जाती हैं ।
बाबा बामाखेपा की महासमाधि सन् १९११ ई० को हुई थी ।
तारापीठ में साधना हेतु न केवल पूर्वाँचल अपितु समग्र देश और विदेशों से भी साधक आते रहते हैं । साधक प्रायः अधिक संख्या में अमावश्या को दिखते हैं । अन्य अवसरों पर श्रद्धालुओं, भक्तों, पर्यटकों आदि की ही भीड़ होती है ।
अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल
हिंगलाज धाम
अघोरपथ के अनेक पुन्य स्थलों में से एक हिंगलाज वर्तमान पाकिस्तान देश के बलुचिस्तान राज्य में अवस्थित है । यह स्थान सिंधु नदी के मुहाने से १२० किलोमीटर और समुद्र से २० किलोमीटर तथा कराची नगर के उत्तर पश्चिम में १२५ किलोमीटर की दूरी पर हिंगोल नदी के किनारे स्थित है । यह अँचल मरुस्थल होने के कारण इस स्थल को मरुतीर्थ भी कहा जाता है । इस स्थल के श्रद्धालु पूरे भारतवर्ष में पाये जाते हैं ।
भारतवर्ष के ५२ शक्तिपीठों में इस पीठ को भी गिना जाता है । कथा है कि एक बार महाराज दक्ष प्रजापति यज्ञ करा रहे थे । उन्होने समस्त देवताओं को निमंत्रित किया था । उस यज्ञ में उनके अपने जामाता शिव जी को आमंत्रित नहीं किया गया था । दक्ष पुत्री, शिव भार्या दाक्षायनी, सती शिव जी के मना करने पर भी अनिमन्त्रित ही पिता के घर यज्ञस्थल पहुँच गईं । महाराज दक्ष के द्वारा शिव जी को सादर आमन्त्रित कर पूजन करने के सती के प्रस्ताव को अमान्य कर देने पर इसे अपना और अपने पति का अपमान माना और सती क्रुद्ध हो गईं । उन्होने अपमान की पीड़ा में योगाग्नि उत्पन्न कर अपना शरीर दग्ध कर त्याग दिया । सती के इस प्रकार से शरीर त्याग देने से शिव जी को मोह हो गया । शिव जी ने सती के अधजले शव को कन्धे पर उठाये उन्मत्त होकर इधर उधर घूमने लगे । शिव जी की मोहाभाविष्ट दशा से चिन्तित देवताओं ने भगवान विष्णु से उपाय करने की प्रार्थना की । भगवान विष्णु अपने आयुध सुदर्शन चक्र से शिव जी के कन्धे पर के सती के शव को खण्ड खण्ड काटकर गिराने लगे । हिंगलाज स्थल पर सती का सिरोभाग कटकर गिरा । अन्य इक्यावन शक्तिपीठों में सती के विभिन्न अँग कटकर गिरे थे । इस प्रकार ५२ शक्तिपीठों की स्थापना हुई ।
जनश्रुति है कि रघुकुलभूषण मर्यादा पुरुषोत्तम राम चन्द्र जी शक्ति स्वरुपा सीता जी के साथ रावण बध के पश्चात ब्रह्म हत्या दोष के निवारण के लिये हिंगलाज गये और देवी की आराधना किये थे । यह भी कहा जाता है कि पुरातन काल में इस क्षेत्र के शासक भावसार क्षत्रीयों की कुल देवी हिंगलाज थीं । बाद में यह क्षेत्र मुसलमानों के अधिकार में चला गया । यहाँ के स्थानीय मुसलमान हिंगलाज पीठ को “बीबी नानी का मंदर” कहते हैं । अप्रेल के महीने मे स्थानीय मुसलमान समूह बनाकर हिंगलाज की यात्रा करते हैं और इस स्थान पर आकर लाल कपड़ा चढ़ाते हैं, अगरबत्ती जलाते है, और शिरीनी का भोग लगाते हैं । वे इस यात्रा को “नानी का हज” कहते हैं । आसपास के निवासी जहर से सम्बिधित विमारीयों के निवारण के लिये इस स्थल की यात्रा करते हैं, माता का पूजन , प्रार्थना करते हैं । उनकी मान्यता है कि हिंगुल में जहर को मारने की शक्ति होती है अतः हिंगलाज देवी भी जहर से सम्बंधित रोगों से त्राण दिलाने में सक्षम हैं ।
हिंगलाज देवी की गुफा रंगीन पत्थरों से निर्मित है । गुफा में प्रयुक्त विभिन्न रंगों की आभा देखते ही बनती है । माना जाता है कि इस गुफा का निर्माण यक्षों के द्वारा किया गया था, इसीलिये रंगों का संयोजन इतना भव्य बन पड़ा है । पास ही एक भैरव जी का भी स्थान है । भैरव जी को यहाँ पर “भीमालोचन” कहा जाता है ।अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी की हिंगलाज यात्रा की कथा हमें प्राप्त होती है । कथा कुछ इस प्रकार हैः
“उन दिनों बाबा कीनाराम जी गिरनार में तप कर रहे थे । भ्रमण के क्रम में एकबार बाबा कच्छ की खाड़ियों, दलदलों को, जिनको पार करना असम्भव है, अपने खड़ाऊँ से पार कर हिंगलाज जा पहुँचे । हिंगलाज पहुँचकर बाबा कीनाराम मंदिर से कुछ दूरी पर घूनी लगाये तपस्या करने लगे । बाबा कीनाराम जी को हिंगलाज देवी एक कुलीन घर की महिला के रुप में प्रतिदिन स्वयं भोजन पहुँचाती रहीं । बाबा की धूनी की सफाई, व्यवस्था १०,११ वर्ष के बटुक के रुप में, भैरव स्वयं किया करते थे । एक दिन महाराज श्री कीनाराम जी ने पूछ दियाः ” आप किसके घर की महिला हैं ? आप बहुत दिनों से मेरी सेवा में लगी हुई हैं । आप अपना परिचय दीजिये नहीं तो मैं आप का भोजन ग्रहण नहीं करुँगा ।” मुस्कुराकर हिंगलाज देवी ने बाबा कीनाराम जी को दर्शन दिया और कहाः ” जिसके लिये आप इतने दिनों से तप कर रहे हैं, मैं वही हूँ । मेरा अब समय हो गया है । मैं अपने नगर काशी में जाना चाहती हूँ। अब आप जाइये और जब कभी स्मरण कीजियेगा मैं आप को मिल जाया करूँगी “। महाराज श्री कीनाराम ने पूछाः माता, काशी में कहाँ निवास करियेगा ? हिंगलाज देवी ने उत्तर दियाः मैं काशी में केदारखण्ड में क्रीं कुण्ड पर निवास करूँगी” । उसीदिन से ॠद्धियाँ महाराज श्री कीनाराम के साथ साथ चलने लगीं और बटुक भैरव की उस धूनी से महाराज श्री का सम्पर्क टूट गया । महाराज ने धूनी ठंडी की और चल दिये ।”

क्रीं कुण्ड स्थल वाराणसी में एक गुफा है । उक्त गुफा में बाबा कीनाराम जी ने हिंगलाज माता को स्थापित किया है । सामान्यतः यह एक गोपनीय स्थान है ।
इन दो स्थलों के अलावा हिंगलाज देवी एक और स्थान पर विराजती हैं, वह स्थान उड़ीसा प्रदेश के तालचेर नामक नगर से १४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । जनश्रुति है कि विदर्भ क्षेत्र के राजा नल माता हिंगलाज के परम भक्त हो गये हैं । उनपर हिंगलाज देवी की महती कृपा थी । एकबार पूरी के महाराजा गजपति जी ने विदर्भ नरेश नल से सम्पर्क साधा और निवेदन किया कि जगन्नाथ मंदिर में भोग पकाने में बड़ी असुविधा हो रही है, अतः माता हिंगलाज अग्नि रुप में जगन्न्थ मंदिर के रंधनशाला में विराजमान होने की कृपा करें । माता ने राजा नल द्वारा किया गया निवेदन स्वीकार कर लिया और जगन्नाथ मंदिर परिसर में अग्नि के रुप में स्थापित हो गईं । उन्हीं अग्निरुपा माता हिंगलाज का मंदिर तालचेर के पास स्थापित है ।
छत्तिसगढ़ में हिंगलाज देवी का शाक्त सम्प्रदाय में प्रचूर प्रचार रहा है । यहाँ शक्ति साधकों, मांत्रिकों को बैगा कहा जाता रहा है । इस अँचल में अनेक शक्ति साधकों के अलावा समर्थ आचार्य भी हुये हैं । उनमें से कुछ का नाम इस प्रकार हैः १, देगुन गुरु, २, धनित्तर गुरु, ३ बेंदरवा गुरु |इससे रुद्र के अँशभूत हनुमान इँगित होते हैं | ४, धरमदास गुरु | धरमदासजी कबीरपँथ के आचार्य थे | ५, धेनु भगत, ६, अकबर गुरु |आप मुसलमान थे | आदि । इन सब गुरुओं ने हिंगलाज देवी को सर्वोपरी माना है और बोल मंत्रों में देवी को गढ़हिंगलाज में स्थिर हो जाने का निवेदन करते हैं । हिंगलाज के सन्दर्भ का एक बोल मन्त्र दृष्टव्य हैः
” सवा हाथ के धजा विराजे, अलग चुरे खीर सोहारी,
ले माता देव परवाना, नहिं धरती, नहिं अक्कासा,
जे दिन माता भेख तुम्हारा, चाँद सुरुज के सुध बुध नाहीं,
चल चल देवी गढ़हेंगुलाज, बइठे है धेनु भगत,
देही बिरी बंगला के पान, इक्काइस बोल, इक्काइस परवाना,
इक्काइस हूम, धेनु भगत देही, शीतल होके सान्ति हो ।”
अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल
अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल
अघोरपथ के पथिक, सिद्ध, महात्मा, संत,अवधूत,अघोरेश्वर जिन स्थलों में रहकर साधना किये हैं , तप किये हैं, वे स्थल जाग्रत अवस्था में आज भी साधकों को साधना में नई उँचाइयाँ प्राप्त करने में सहयोगी हो रहे हैं । इन स्थलों में उच्च स्तर के साधकों को सिद्ध, अवधूत, अघोरेश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन , मार्गदर्शन भी प्राप्त हो जाया करता है । हम यहाँ कतिपय ऐसे ही स्थलों की चर्चा करेंगे ।
१, गिरनार
गुजरात राज्य में अहमदाबाद से लगभग ३२७ किलोमीटर की दूरी पर अपने सफेद सिंहों के लिये गीर के जगत प्रसिद्ध अभयारण्य के पार्श्व में एक नगर बसा है, नाम है जूनागढ़ । इस शहर के आसपास से शुरु होकर पहाड़ों की एक श्रृँखला दूर तक चली गई है । इसी पर्वत श्रृखला का नाम ही गिरनार पर्वत है । इस पर्वत श्रृँखला का सबसे उँचा पर्वत जूनागढ़ शहर से मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है । इस पर्वत की तीन चोटियाँ हैं । इन तीनों में से सबसे उँची चोटी पर भगवान दत्तात्रेय जी का एक छोटा सा मन्दिर है, जिसके अंदर भगवान दत्तात्रेय जी की चरणपादुका एवं कमण्डलु तीर्थ स्थापित हैं । दूसरे शिखर का नाम बाबा गोरखनाथ के नाम है । कहा जाता है यहाँ बाबा गोरखनाथ जी ने बहुत काल तक तप किया था । इन दोनो शिखर के बीच में एक तीसरा शिखर है जो अघोरी टेकड़ी कहलाता है । इसकी चोटी में एक धूनि हमेशा प्रज्वलित रहती है, और यहाँ अनेक औघड़ साधु गुप्त रुप से तपस्या रत रहते हैं ।
गिरनार की प्रसिद्धि के तीन कारक गिनाए जाते हैं ।
पहला, भगवान दत्तात्रेय जी का कमण्डलु तीर्थ । भगवान दत्तात्रेय भगवान सदाशिव के पश्चात अघोरपथ के अन्यतम आचार्य हो गये हैं । उन्होने अपने तपोबल से गिरनार को उर्जावान बना दिया है । इस स्थल पर साधकों को सरलता से सिद्धि हस्तगत होती है । कहा तो यह भी जाता है कि जो योग्य साधक होते हैं, उन्हें भगवान दत्तात्रेय यहाँ पर प्रत्यक्ष दर्शन देकर कृतार्थ भी करते हैं ।
दूसरा, गिरनार पर्वत के मध्य में स्थित जैन मन्दिर । लगभग ५५०० सिढ़ियाँ चढ़ने पर यह स्थान आता है । यहाँ पर कई जैन मन्दिर है । इन मन्दिरों का निर्माण बारहवीं, तेरहवीं शताब्दी में हुआ था । इसी स्थान पर जैन धर्म के बाइसवें तीर्थंकर बाबा नेमीनाथ जी परमसत्य को उपलब्ध हुए थे । इस स्थल से जैन धर्म के उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लीनाथ जी का नाम भी जोड़ा जाता है । कोई कोई विद्वतजन मल्लीनाथ जी को स्त्री भी मानते हैं । सत्य चाहे जो हो मल्लीनाथ जी तिर्थंकर थे इसमें कोई संदेह नहीं है । इस प्रकार गिरनार जैन धर्मावलम्बियों के लिये भी तीर्थ है, और बड़ी संख्या में जैन तीर्थयात्री यहाँ आते भी रहते हैं ।
तीसरा, जैन मन्दिर से और ऊपर अम्बा माता का मन्दिर अवस्थित है । यह मन्दिर भी पावन गिरनार पर्वत की प्रसिद्धि का एक कारण है । यह एक जाग्रत स्थान है । वर्षभर तीर्थयात्री यहाँ माता के दर्शन के लिये आते रहते हैं ।
श्री सर्वेश्वरी समूह वाराणसी द्वारा प्रकाशित “औघड़ राम कीना कथा ” ग्रँथ में अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी का जूनागढ़ , गिरनार प्रवास उल्लिखित है । कथा कुछ इस प्रकार आगे बढ़ती हैः
“महाराज श्री कीनाराम जी जब जूनागढ़ राज्य में पदार्पण किये, उन्होने कमण्डलु कुण्ड, अघोरी शिला पर बैठे हुए सिद्धेश्वर दत्तात्रेय जी को बड़े वीभत्स रुप में माँस का एक बड़ा सा टुकड़ा लिये हुए देखा । कीनाराम जी को इससे थोड़ी घृणा हुई । उसी माँस का एक टुकड़ा दाँतों से काटकर सिद्धेश्वर दत्तात्रेय जी ने महाराज श्री कीनाराम जी को दिया । उसे खाते ही महाराज श्री कीनाराम जी की रही सही शंका और घृणा भी जाती रही ।
एक बार अघोरी का रुप धारण किए हूए सिद्धेश्वर दत्तात्रेय और महाराज श्री कीनाराम जी एक ही साथ गिरनार पर्वत पर बैठे हुए थे । वहाँ से उन्होने दिल्ली में घोड़े पर जाते हुए बादशाह का दुशाला गिरते हुए देखा । सिद्धेस्वर दत्तात्रेय जी ने बाबा कीनाराम जी से कहाः ” देखते नहीं हो ? दुशाला घोड़े से गिर गया है । ” महाराज श्री कीनाराम जी ने कहाः ” वजीर लोग दुशाला दे रहे हैं । घोड़ा काला है । बादशाह अपने महल को जा रहे हैं ।” इस पर वीभत्स रुप धारण किये हुये सिद्धेश्वर दत्तात्रेय जी ने कहा, अब क्या देखते हो? अब क्या गिरनार में बैठे हो? जाओ। प्राणियों का कल्याण करो । उनमें जो क्षोभ, मोह, ईर्ष्या और घृणा है उसे तुम दूर करो । तुम एक अँश से इसी मध्य शिखर पर विराजोगे ।” तभी से गिरनार पर्वत का मध्य शिखर ” अघोरी टेकड़ी के नाम से विख्यात है । यह भी विख्यात है कि दत्तात्रेय जब गोरखनाथ की ओर चीलम बढ़ाते हैं तो औघड़ बीच में रोककर पी लेते हैं ।
” दत्त गोरख की एक ही माया, बीच में औघड़ आन समाया ।”
अष्टाँग साधना
अघोरपथ में यह एक अत्यंत ही गोपनीय साधना है । अवधूत, अघोरेश्वर समय काल पाकर इस साधना को करते हैं । संभव है प्रकृति विजय के क्रम में इस साधन प्रणाली का सहारा लिया जाता हो । इसके विषय में गुरु और अधिकारी शिष्य के अलावा अन्य व्यक्ति को कुछ भी ज्ञान होना संभव नहीं है, क्योंकि साधना काल में अन्य व्यक्ति की उपस्थिति वाँछनीय नहीं होती, वरन् व्यवधान ही माना जाता है । श्री सर्वेश्वरी समूह द्वारा प्रकाशित साहित्य में एक स्थान पर अति सामान्य ढ़ंग से इस साधना का विवरण दिया गया है । विवरण भी इतना अल्प है कि हम इसे साधना की ओर इँगित करना ही कह सकते हैं । वैसे तो जैसा कि हम पूर्व में कह आये हैं अघोर साधना गुरुमुखी साधना है, परन्तु सामान्य जानकारी के लिये उक्त विवरण यहाँ प्रस्तुत है ।
” एक बार अघोरेश्वर भगवान राम जी छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में स्थित सोगडा आश्रम में निवास कर रहे थे । उनका शिष्य मुड़िया साधु वहीं अपनी कुटी में रहकर बाबा की सेवा में लीन था । बाबा की शिष्या योगिनी मेघमाला अपने गुरु के दर्शन के लिये आई हुई थीं ।
एक दिन अघोरेश्वर चाँदनी रात के शून्यायतन में वहाँ की पर्वताट्टालिका में चट्टान पर ध्यानस्थ बैठे थे । योगिनी मेघमाला तथा मुड़िया साधु उनके समक्ष उपस्थित होकर साष्टाँग प्रणाम, अभिवादन किये और सत्संग के लिये चरणों में बैठ गये ।
बाबा की आज्ञा पाकर योगिनी ने मुड़िया साधु की ओर इशारा करते हुए निवेदन कियाः ” गुरुदेव, कल रात्रि में जब मैं टहलने के क्रम में इनकी कुटी के पास से गुजरी तो देखी कुटी के भीतर इनके शरीर के सब अंग अलग अलग पड़े हैं । कटि भाग अलग है, वक्षस्थल अलग है, बाहें अलग हैं, पाँव अलग हैं । मुझे शंका हुई कि किसी क्रूरकर्मी ने हमारे इन गुरुभाई मुड़िया साधु के शरीर को काटकर , उनके अंगों को अलग अलग कर दिया है ।
इनकी कुटी झंझरीदार है, उसमें से भीतर का दृश्य थोड़ा बहुत दिख जाता है ।

मैं बहुत भयभीत हो गई और तीव्रगति से आपके कुटी के पास गई तो देखा कि कुटी का द्वार बन्द है । कुछ उपाय न सूझ रहा था । मैं पुनः इनकी कुटी की परिधि में लौट आई । मेरी घबराहट इतनी बढ़ गई थी कि मैं एकाएक जोर से चिल्ला उठी, परम्मा ! परम्मा! यह क्या हुआ ? मेरी आवाज को सुनते ही मैंने देखा कि हमारे ये मुड़िया गुरुभाई स्वस्थ शरीर आसनस्थ बैठे हुये हैं । मेरे बार बार पूछने पर भी इन्होंने कुछ नहीं बतलाया । गुरुदेव क्या ये मेरा भ्रम था या सत्य था ? बाबा ने पूछाः ” मेघमाले ! तुमने वहाँ रक्त भी देखा था ?
जब मेघमाला ने कहा कि उसने रक्त नहीं देखा था, तब बाबा जी ने कहा किः ” उस स्थिति में आश्चर्य की क्या बात है ? औघड़, अघोरेश्वर लोग, जब अनुकूल स्थिति पाते हैं तो दिब्य संकल्पों के द्वारा भाव भावनाओं से रहित अपनी कुटी में आसनस्थ हो इस क्रिया को भी करते हैं । जो कुछ इसने किया है, वह क्रिया और कला दोनों है । यह कोई बिद्या नहीं है, अष्टांग अभ्यास है ।”
हमने इस साधना, क्रिया, अभ्यास, जैसा कि अघोरेश्वर जी ने बतलाया है, का संकेत शिरडी वाले सांई राम जी के लीला चरित में भी पाया है । वे भी अष्टाँग साधना किया करते थे । उन्हें ऐसा करते साधुओं की एक टोली ने देखा था, जो रात्री के अंधकार में उन्हें नुकसान पहुँचाने की नियत से द्वारका माई में प्रवेश किया था । निश्चय ही वे भी इस साधना, अभ्यास में पारंगत थे । उनके विषय में इस लेखक को ज्यादा जानकारी तो नहीं है, लेकिन उनके नाम में राम लगना तथा औघड़ों के गोप्य साधना पद्धतियों का अनुशरण करना, पारंगत होना इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि शिरडी वाले सांई राम जी कीनारामी परम्परा के साधु थे ।
औघडों में और भी अनेकों गोपनीय साधनाओं, क्रियाओं का प्रचलन है, जिनसे वे शक्तिमान बनते हैं तथा समाज और देश का कल्याण करते हैं ।
अघोर साधना के मूल तत्वः गोप्य पूजाः श्मशान क्रिया
श्मशान शब्द से ही जलते हुए शव से चतुर्दिग फैलती चिराँध, श्रृगालों के द्वारा खोदकर निकाली गई मानव अँगों को चिचोड़ते गिद्धों की टोलियाँ, यहाँ वहाँ
हवा के हाथों बिखरे जले हुए मानव तन की भष्मी के अँश, यत्र तत्र पड़े हड्डियों और माँस के छिन्न खंड, रह रहकर आती ऊलूकों के धूत्कार, आदि दृष्य अनायास ही आँखों के सामने आकर जुगुप्सा जगाने लगते हैं । श्मशान मानव मनोविकार द्वय “भय” और “घृणा” के चरमोत्कर्ष की स्थली है । लोग अपने प्रियजनों की शव यात्रा में अन्य अनेक सम्बन्धियों के साथ श्मशान में कम समय के लिये आते हैं और प्राण रहित देह को अग्नि या धरती के सिपुर्द कर लौट जाते हंख । जन सामान्य का श्मशान से इतना ही सम्बन्ध है । यही श्मशान अघोर पथ के साधकों, सिद्धों, अघोराचार्यों, साधुओं की साधना स्थली, निवास स्थली रहती रही है । बहुत काल तक जंगल के भीतर निर्मित किसी मंदिर के गर्भगृह के शून्यायतन में या किसी महाश्मशान के भीतरी भाग में किसी समाधी को शय्या बनाकर औघड़ साधक साधना में निमग्न रहते आये हैं ।
” औघड़ के नौ घर, बिगड़े तो शव घर ।”
साधना की पराकाष्ठा तभी होती है जब पूर्ण इन्द्रीय जय या मनोविकारों पर जय सिद्ध हो जाता है । इस शरीर में नौ द्वार होते हैं । २ आँखें, २ कान, २ नाक, १ मुँह, १ शिश्न या योनि तथा १ गुदा । इनको वश में कर लेने से आध्यात्मिक उन्नति की गति तीव्र हो उठती है । श्मशान क्रियाओं के द्वारा इनपर विजय पाना सरल हो जाता है ।
कमोवेश श्मशान साधना भारत में अघोरियों के अलावा अन्य कई सम्प्रदायों में भी की जाती है । इसका चलन पूर्वी भारत में ज्यादा दिखता है । आसाम, पूर्वी बिहार या मैथिल प्रदेश, बंगाल तथा उड़ीसा के पूर्वी भाग में, आमावश्या की निशारात्री में अनेक साधक महाश्मशानों में साधनारत रहते हैं । अन्य भू भाग में भी छिटपुट रुप से श्मशान साधक फैले हुए हैं ।
आसाम का कामरुप प्रदेश का तन्त्र साधना स्थली के रुप में बहुत नाम रहा है । पुरातन काल की कथा है, इस प्रदेश में मातृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था प्रचलित थी । कामरुप की स्त्रियाँ तन्त्र साधना में बड़ी ही प्रवीण होती थीं । बाबा आदिनाथ, जिन्हें कुछ विद्वान भगवान शंकर मानते हैं, के शिष्य बाबा मत्स्येन्द्रनाथ जी भ्रमण के क्रम में कामरुप गये थे । बाबा मत्स्येन्द्रनाथ जी कामरुप की रानी के अतिथि के रुप में महल में ठहरे थे । बाबा मत्स्येन्द्रनाथ, रानी जो स्वयं भी तंत्रसिद्ध थीं, के साथ लता साधना में इतना तल्लीन हो गये थे कि वापस लौटने की बात ही भूल बैठे थे । बाबा मत्स्येन्द्रनाथ जी को वापस लौटा ले जाने के लिये उनके शिष्य बाबा गोरखनाथ जी को कामरुप की यात्रा करनी पड़ी थी । “जाग मछेन्दर गोरख आया ” उक्ति इसी सन्दर्भ में बाबा गोरखनाथ जी द्वारा कही गई थी । कामरुप में श्मशान साधना व्यापक रुप से प्रचलित रहा है । इस प्रदेश के विषय में अनेक दन्तकथाएँ प्रचलित हैं । बाहर से आये युवाओं को यहाँ की महिलाओं द्वारा भेड़ , बकरी बनाकर रख लिया जाना एक ऐसी ही दन्त कथा है ।
बंगाल में श्मशान साधना का प्रसिद्ध स्थल क्षेपा बाबा की साधना स्थली तारापीठ का महाश्मशान रहा है । आज भी अनेक साधक श्मशान साधना के लिये कुछ निश्चित तिथियों में तारापीठ के महाश्मशान में जाया करते हैं । महर्षि वशिष्ठ से लेकर बामाक्षेपा तक अघोराचार्यों की एक अविच्छिन्न धारा यहाँ तारापीठ में प्रवहमान रही है ।
आनन्दमार्ग बिहार और बंगाल की मिलीजुली माटी की सुगन्ध है । प्रवर्तक श्री प्रभातरंजन सरकार उर्फ आनन्दमूर्ति जी थे । आनन्दमार्ग के साधु जो अवधूत कहलाते हैं श्मशान साधना करते हैं । इनकी झोली में नरकपाल रहता ही है । ये अमावश्या की रात्री में साधना हेतु श्मशान जाते है । श्मशान साधना से इन साधुओं को अनेक प्रकार की सिद्धी प्राप्त है ।
श्मशान के बारे में अघोरेश्वर भगवान राम जी ने अपने शिष्यों को बतलाया थाः
” श्मशान से पवित्र स्थल और कोई स्थान हो ही नहीं सकता । न मालूम इस श्मशान भूमि में प्रज्वलित अग्नि सदियों से कितने जीवों के प्राणरहित देहों की आहुति लेती आ रही है । न मालूम कितने महान योद्धाओं, राजाओं, महाराजाओं, सेठ साहूकारों, साधुओं सज्जनों, चोरों मुर्खों, गर्व से फूले न समाने वाले नेताओं और विद्वतजनों की देहों की आहुतियाँ श्मशान में प्रज्वलित अग्नि के रुप में महाकाल की जिव्हा में भूतकाल में पड़ी हैं, वर्तमान काल में पड़ रही हें और भविष्य काल में पड़ती रहेंगी । कितने घरों और नगरों की अग्नि शाँत हो जाती है किन्तु महाश्मशान की अग्नि सदैव प्रज्वलित रहती है, प्राणरहित लोगों के देहों की आहुति लेती रहती है । जिस प्रकार योगियों और अघौरेश्वरों का स्वच्छ और निर्मल हृदय जीवों के प्राण का आश्रय स्थल बना रहता है, ठीक उसी प्रकार श्मशान प्राण रहित जीवों के देह को आश्रय प्रदान करता है । उससे डरकर भाग नहीं सकते । पृथ्वी में, आकाश में, पाताल में, कहीं भी कोई स्थान नहीं है जहाँ छिपकर तुम बच सकते हो ।”अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी की एक कथा में जो , उनके प्रथम शिष्य बाबा बीजाराम द्वारा लिखी गई तथा श्री सर्वेश्वरी समूह द्वारा प्रकाशित ग्रँथ ” औघड़ रामकीना कथा” में संगृहित है श्मशान साधना का विवरण दिया गया है । कथा कुछ इस प्रकार हैः
” मुँगेर जनपद में गंगा के किनारे श्मशान के पास एक कुटी में बाबा कीनाराम वर्षावास कर रहे थे । मध्यरात्रि की बेला थी । पीले रंग के माँगलिक वस्त्र और खड़ाऊँ पहने, सुन्दर केशवाली एक योगिनी ने आकाश की ओर से उतरती हुई अघोराचार्य महाराज कीनाराम जी के निकट उपस्थित होकर प्रणाम निवेदन किया । महाराज श्री के परिचय पूछने पर योगिनी ने बतलाया कि वह गिरनार की काली गुफा की निवासिनी है । प्रेरणा हई, आकर्षण हुआ और वह आकाशगमन करते हुए महाराज जी की कुटी पर आ पहुँची । योगिनी ने अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी से निवेदन किया किः ” जो साध्य है मेरा, उसे आप क्रियाओं द्वारा क्रियान्वित करें, जिससे मुझमें जो कमी है उसकी पूर्णता को प्राप्त करुँ ।”
श्मशान में एक शव के, जिसे परिजन अत्यधिक बर्षा के कारण उपेक्षित छोड़ गये थे, गंगा की कछार में मूँज की रस्सियों से, खूंटी गाड़कर, हाथ , पाँव को बाँध दिया गया । शव को लाल वस्त्र ओढ़ाकर मुख खोल दिया गया । योगिनी और बाबा कीनाराम आसनस्थ हुए । महाराज मन्त्र उच्चारण करते रहे और योगिनी अभिमंत्रित कर धान का लावा शव के खुले मुख में छोड़ती रहीं । थोड़े ही काल तक यह क्रिया हुई होगी कि बड़े जोर का अट्टहास करके पृथ्वी फूटी और नन्दी साँढ़ पर बैठे हुए सदाशिव, श्मशान के देवता, उपस्थित हुए । बड़े मधुर स्वर में बोलेः ” सफल हो सहज साधना । दीर्घायु हो । कपालालय में, ब्रह्माण्ड में सहज रुप से प्रविष्ठ होने का आप दोनों का मार्ग प्रशस्त है । याद रखना, अनुकूल समय में मैं उपस्थित होता रहूँगा ।” योगिनी और महाराज श्री कीनाराम जी ने शव से उतरकर प्रणाम किया । श्मशान देवता देखते देखते आकाश में विलीन हो गये । एक कम्पन हुआ और शव पत्थर के सदृश हो गया ।
योगिनी तृप्त हुई और महाराज श्री को प्रणाम कर आकाशगमन करते हुए पश्चिम दिशा की ओर चलीं गई ।”
अघोर साधना के मूल तत्वः वेशभूषा व भिक्षाटन
हम सब ने प्रत्यक्ष या संचार माध्यमों में एकाधिक बार अघोरियों को देखा है । जटाजूट धारी, अर्धनग्न, त्रिशूल और खप्पर पकड़कर भय फैलाती छबि ही हमारे मानस पटल पर उभरती है । नागा साधु भी , जो सर्वथा नग्न अवस्था में रहते हैं, अघोरी ही हैं । उक्त विचित्र वेशभूषा में हिमाली और गिरनारी दोनों प्रकार के ही साधु दिखलाई पड़ते हैं । कुछएक ठग भी कभी कभी इस वेशभूषा को धारण किये दिखलाई पड़ते हैं ।
अघोरपथ में इस प्रकार की वेशभूषा अँगिकार करने के पीछे साधना विषयक कारण प्रमुख रहे हैं । अघोराचार्य अपना अधिकाँश समय श्मशान में व्यतीत करते रहे हैं । श्मशान में निवास के कारण शारीरिक स्वच्छता, वस्त्र, उदर भरण आदि की न्यूनता स्वाभाविक है, तिसपर इन संतों का मन हर हमेशा उस अज्ञात की ओर ही उन्मुख रहने के कारण इनका ध्यान शरीर की ओर नहीं जाता और उक्त स्थिति सहज ही बनती जाती है ।
अघोरपथ के संत महात्मा आदिमकाल से ही कम संख्या में होते आये हैं । हिमाली घराने में बाबा गोरक्षनाथ जी और उनकी परम्परा के अन्य सिद्धों के द्वारा उत्तर भारत में आश्रम, मठ आदि स्थापित करने के बाद आश्रमवासी साधकों की संख्या अवश्य बढ़ी, जो आज तक चली आ रही है । ये साधु यदा कदा जब तिर्थाटन के लिये समूह में निकलते थे तो जगह जगह श्रद्धालुओं द्वारा दान की गई भूमि पर छोटे छोटे मठ नुमा बने हुए स्थलों पर एक दो दिन ठहरते और आगे बढ़ जाते थे । सामान्यतः उनके लिये इन्ही स्थलों पर भिक्षा की व्यवस्था हो जाया करती थी । साधुओं की टोली के आगमन पर आसपास के श्रद्धालु भक्त इन स्थलों पर जाकर अपना भेंट चढ़ाते और प्रवचन सुनते थे । इन भक्तों की समस्याओं का समाधान भी इन स्थलों पर ऐसे मौकों पर हो जाया करता था । आजकल ऐसे स्थल या तो उजाड़ पड़े हैं या सेवादारों या अन्य लोगों के द्वारा इनपर आधिपत्य जमा लिया गया है ।
गिरनारी या किनारामी अघोरियों का निवास गुजरात में गिरनार पर्वत के आसपास और बनारस तथा बनारस के आसपास होता आया है । कभी कभी राजस्थान, महाराष्ट्र, बंगाल तथा देश के अन्य भू भाग में भी एक दो महात्माओं का सँधान मिलता है । दक्षिण भारत में अघोर पथ के पथिक ब्रह्मनिष्ठ कहलाते हैं । वे दक्षिणाँचल तक ही सीमित रहे हैं तथा दो चार महात्माओं के अलावा अन्य अघोराचार्यों की जानकारी उपलब्ध नहीं है ।
गिरनारी या कीनारामी साधु सर में बाल नहीं रखते । मुड़िया होते हैं । वस्त्र के नाम पर कफन का टुकड़ा लपेटते हैं । अघोरेश्वर भगवान राम जी ने सफेद लुँगी और बँडी पहनना शुरू किया, तब से इस परम्परा का यही वेश हो गया है, लेकिन यह नियम नहीं है ।
बाबा कीनाराम जी ने अपने शिष्यों को इस विषय में निर्देश देते हुए कहा थाः
” यहाँ नगर और ग्राम से क्षण भर के लिये वैराग्य से प्रेरित जन श्मशान में शव को लेकर आते हैं । जाओ साधुओ, उपेक्षित वस्त्र, जो कफन है, वही साध्य है, उसे अँगिकार करना । संसार में जाग्रत होकर निवास करो । सभी जातियों, सभी धर्मों, सभी प्राणियों के पाँच घरों से उपलब्ध भिक्षाटन पर ही जीवन यापन एवँ प्राण रक्षा करो । खाद्य, अखाद्य, विधि निषेध से उपराम होकर जो रुचे सो पचे के सिद्धाँत का अवलम्बन लेकर पृथ्वी में विचरो । ”
भिक्षाटन के विषय में अपने शिष्यों को शिक्षा देते हुए अघोरेश्वर भगवान राम जी ने बतलाया हैः
” मुड़िया साधु! जब दिन का मध्यान्ह बेला हो जाय तब ग्रामीण के घर भिक्षाटन के लिये जाना चाहिये । तब तक गृहस्थ मध्यान्ह का भोजन कर चुके होते हैं और जो कुछ बचा रहता है उसे देने में उन्हें हिचक नहीं होती है । तुम उन पर बोझ नहीं बनते और तुम्हें भिक्षा देकर वे अपने को वंचित नहीं समझते । ऐसा होने पर तूँ समझ जाना यही हमारा परम कर्तब्य है, साधुता है । यही औघड़ अघोरेश्वर के योग्य कृत्य है । ”
अघोर साधना के मूल तत्वः होम व हवन
पुरातन काल में होम व हवन भिन्नार्थक हुआ करते थे । किसी पूजा अनुष्ठान, किसी सामाजिक कर्मकाण्ड, किसी जन बहुल उत्सव की समाप्ति की घोषणा के समय होम अनुष्ठित करने की प्रथा थी । होम में मुख्यतः समिधा की आहूति दी जाती थी । हवन होम से अलग दूसरे प्रकार की क्रिया होती थी । वैदिक देवी देवताओं को तृप्त करने तथा उनकी कृपा प्राप्ति के निमित्त यह कार्य किया जाता था । विभिन्न देवताओं के लिये हवन में समिधा के अलावा अलग अलग वस्तुओं की आहुति दी जाती थी । इसमें समिधा के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ, तण्डुल, गोधूम, पकवान, चन्दन काष्ठ, धूप, धूनी, पशु मुण्ड, रक्त, माँस, विजित शत्रु का सिर, रक्त, माँस आदि की आहुति दी जाती थी ।
होम तो आज भी किया जाता है । सत्यनारायण कथा के अंत में, गणेशपूजा , दूर्गा पूजा, गृहारंभ के समय वास्तु पूजा, गृह प्रवेश के समय की पूजा आदि सब समय अंत में होम होता है । लोग मानते हैं कि होम के सुगन्ध भरे धुआँ मर्त्यलोक से उर्घ्वलोक में उत्थित होगा और वायु और आकाश विभिन्न गंधों से परिपूर्ण हो जायेंगे जिससे पूजित देवता तृप्त होकर कृपा करेंगे ।
तन्त्र ग्रंथों में हवन का वर्णन विशद रुप से आता है । किसी भी मन्त्र का , देवता का अनुष्ठान की पूर्णता तभी होती है जब निश्चित मात्रा में जप किया जाय, जप का दशाँश हवन हो तथा हवन का दशाँश ब्राह्मण भोजन, जिसे आजकल भंडारा के रुप में किया जाता है , करना होता है । मन्त्र , देवता के अनुसार हवन में आहुति की मात्रा एवं सामग्री निश्चित होती है ।
अघोरपथ में भी हवन किया जाता है । अघोरपथ में हवन के बारे में निर्दिष्ठ बिधि की लिखित जानकारी तो अप्राप्य है, हाँ अघोरेश्वर भगवान राम जी के प्रवचनों में और साधकों ने अवधूत, अघोरेश्वर को जैसा हवन करते देखकर विवरण छिटपुट रूप से दिया है, उतनी ही जानकारी प्राप्त होती है । यह विवरण हवन के सर्वज्ञात स्वरुप के जैसा ही है अतः उसकी चर्चा करना पुनरुक्ति ही होगी ।
अघोर साधना के मूल तत्वः प्राणायाम
आज के समय में प्राणायाम कोई नया विषय नहीं है । भारत वर्ष में सभी किसी न किसी प्रकार से प्राणायाम से जुड़े हैं , वह चाहे स्वाश्थ्य रक्षा के निमित्त हो या आध्यात्मिक उन्नति के लिये साधना हो । प्राणायाम के विषय में बाजार में अनेक पुस्तकें , अनेक प्रशिक्षक , तथा अनेक संस्थाएँ उपलब्ध हैं । हम यहाँ संक्षेप में प्राणायाम के विज्ञान की चर्चा करेंगे ।
प्राण श्वाँस प्रश्वाँस के समग्र को कहते हैं । श्वाँस प्रश्वाँस के सम्पूर्ण आयाम को नियंत्रित करने के विज्ञान का नाम है प्राणायाम । प्राण जीवन का आधार है । जब तक शरीर में प्राण का प्रवाह चल रहा है, मनुष्य जीवित है । प्राण की क्रियाशीलता समाप्त होते ही मनुष्य का शरीर मृत हो जाता है । जीवन के रहते तक ही संसार है, सारा प्रपञ्च है । अतः यह सिद्ध है कि मनुष्य के लिये प्राण की अहमियत और सबसे अधिक है ।
योग परम्परानुसार प्राण को पाँच विभागों में बाँटा गया है ।
१, प्राणः शरीर के उपरी हिस्से में कण्ठनली, श्वासपटल और अन्न नलिका में यह क्रियाशील रहता है । यह श्वसन अँगों को क्रियाशील बनानेवाली माँसपेशियों को श्वास नीचे खींचने की क्रिया में सहयोग करता है । मनुष्य के जीवन का मुख्य हेतु यही प्राण है ।
२, अपानः यह नाभि प्रदेश के नीचे क्रियाशील रहता है । वृक्क, मुत्रेंद्रिय, बड़ी आँत, गुदाद्वार के संचालन का आधार यही है । शरीर के दूषित वायू का निष्कासन यही करता है । कुण्डलिनी जागरण की क्रिया में भी इसका महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है ।
३, समानः छाती और नाभि के बीच प्रसरण करने वाला यह प्राण पाचन संस्थान, यकृत, क्लोम एवं जठर, आदि को नियंत्रित करता है । यह हृदय एव् रक्त अभिसरण को भी क्रियाशील रखने का हेतु है ।
४, उदानः नेत्र , नासिका, कान आदि इन्द्रियाँ तथा मस्तिष्क को क्रियाशील बनाये रखने का जिम्मा इसी प्राण का है । सोच विचार की शक्ति या चेतना का कारण यही पंराण है ।
५, व्यानः समस्त शरीर में व्याप्त रहकर यह अन्य प्राणों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने का महत्वपूर्ण कार्य इसके द्वारा सम्पन्न होता है । माँसपेशियों , तन्तुओं, नाड़ियों तथा संधियों को क्रियाशील रखता है ।
इसके अलावा पाँच उपप्राण भी बताये गये है ।
१, नाग
२, कूर्म
३, क्रिकल
४, देवदत्त
५, धनंजय
उपप्राण शरीर की छोटी छोटी क्रियाओं जैसे छींकना, जमुहाई लेना, पलक झपकाना, हिचकी लेना आदि को सम्पादित करते हैं । अघोरपथ में धनंजय उपप्राण, जिसकी उपस्थिति कपाल में मानी गई है, के विषय में उल्लेख मिलता है । शवदाह के समय धनंजय प्राण को कपाल से मुक्त करने के लिये ही कपालक्रिया की जाती है । औघड़ या कापालिक इसी धनंजय प्राण का संधारण कपाल साधना के द्वारा करता है ।
साधारण योग प्रणाली में प्राण को नियंत्रित करना होता है । प्राण को नियंत्रित करना ही प्राणायाम है । प्राण के नियंत्रण से मन नियंत्रित होता है । ये दोनो ही निरंतर क्रियाशील रहने वाले हैं । प्राण के चंचल होने से मन चंचल होता है और मन के चंचल होने से प्राण चंचल हो जाता है । दोनो एक दूसरे के पूरक हैं । देह के तल पर प्राणायाम के लिये आसन सिद्धि नितान्त आवश्यक है । आसन सिद्ध होने पर वह एक आसन में लम्बे समय तक स्थिर बैठ सकता है । इससे शरीर में कम्पन नहीं होता, प्राण की क्रिया शाँत होती जाती है, शरीर हल्का हो जाता है और शरीर का भान मिटने लगता है । इस स्थिति का प्रभाव इन्द्रियों और मन पर पड़ता है और योगी का सम्पर्क बाह्य जगत से बिच्छिन्न हो जाता है । यही प्रत्याहार अवस्था कहलाती है । इसके बाद योगी अन्तर जगत नें प्रवेश कर जाता है । आगे धारणा, ध्यान, और समाधि की क्रिया होती है ।
अघोरपथ में प्राण का महत्व अत्यधिक माना गया है । अघोरेश्वर भगवान राम जी ने कहा हैः ” प्राणवायु ही हमारा उपास्य है ।” एक अन्य मौके पर उन्होने कहा था किः ” प्राणमय गुरु सदैव, सर्वत्र, सहज में , अभ्यास से जाने जाते है, देखे जाते हैं और उनसे शक्रगामी फल प्राप्त किये जा सकते हैं । गुरु देह नहीं हैं, प्राण हैं ।”
संत, महात्मा, अघोरेश्वर आदि ने कहीं कहीं प्राण की त्रिविध गति की अत्यंत संक्षेप में चर्चा की है । एक बाह्य और आभ्यन्तरिक गति, या सामान्य श्वास प्रश्वास । दूसरी अधः ऊर्ध्व गति या शरीर के नीचे से हृदय की ओर गति । तीसरी हृदय से ब्रह्मरंध्र गति । यह तीसरी गति अत्यंत रहस्यमय है ।इस गति का परिमाण ३६ अंगुल बताया गया है । योगी के लिये इस गति का अधिकारी होना श्रेष्ठ है ।
प्राणायाम स्वयमेव नहीं करना चाहिये । किञ्चित व्यतिक्रम होने से रोग होने की सम्भावना होती है ।
अघोर साधना के मूल तत्वः ब्रह्मचर्य
संसार के सभी धर्मों में अध्यात्म के क्षेत्र में ब्रह्मचर्य को अत्यंत आवश्यक माना गया है । सन्यासी को , विरक्त को इसीलिये शुरुआत में ब्रह्मचारी भी कहा जाता है । पन्चभूतों में सामन्जस्य स्थापित करने और चित्त की वृत्तियों के निरोध के लिये इसे आवश्यक माना गया है । भारत में पुरातन काल से ही शरीर विज्ञानी वीर्य संचय तथा वीर्य से ओज निर्माण की प्रक्रिया से परिचित रहे हैं । वीर्य संचय से ओज बढ़ता है और ओज ही मानव को प्राणवान बनाता है ।
आध्यात्मिक इतिहास में कुछ गिने चुने महाबीर ऐसे हुए हैं, जो गृहस्थ होते हुए भी योग की उच्चावस्था को प्राप्त किये । उनमें से हम दो महापुरुषों की चर्चा करेंगे । एक थे पूज्य श्री रामकृष्ण देव और दूसरे थे लाहिड़ी महाशय । दोनों महायोगी थे इसमें कुछ भी संशय नहीं है । श्री रामकृष्ण देव विवाहित होते हुए भी सन्यस्त का जीवन जीते थे । उनमें ब्रह्मचर्य ने अपने शिखर में उदघोषित हुआ है । श्री लाहिड़ी महाशय गृहस्थ तो थे ही , गृहस्थ धर्म का पालन भी करते थे । उन्होंने जन सामान्य के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया कि गृहस्थ भी अपने तप के बल से सिद्धावस्था प्राप्त कर सकता है । उन्होंने अपनी डायरी में एक बार स्त्रीप्रसंग के विषय में लिखा है कि साधक के लिये १५ दिनों में स्त्रीप्रसंग करना अनुकूल होता है ।अघोरपथ में वीर्य संचय को परमावश्यक माना गया है । अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी कहते थेः
” भग बीच लिंग, लिंग बीच पारा, जो राखे सोई गुरु हमारा ।”
अघोरपथ में ब्रह्मचर्य की स्थिति को स्पष्ठ करने के लिये अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी के समय की कथा है । कथा कहती है किः
” एक बार बाबा कीनाराम जी के एक शिष्य बाबा दिगम्बर राम जी को लोगों ने फैजाबाद में वेश्याओं के साथ बैठे देखा । बाबा जी से शिकायत हुई । बाबा ने दिगम्बर राम को बुलवाया और कहाः ” तुम रमणियों के साथ रहते हो जिससे बदनामी होती है । तुम कहीं ब्रह्मचर्य से च्युत तो नहीं हो गये हो ? यह बड़ा ही निन्दनीय और अशोभनीय कार्य है , और साधु के लिये उपयुक्त नहीं है । इस असराहनीय कार्य से विरत नहीं हुए और ब्रह्मचर्य से च्युत हो गये हो तो मैं तुझे देखना पसन्द नहीं करुँगा ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी ने एक बार अपने शिष्यों को सम्बोधित करते हुए कहा था किः” प्रिय शिष्यो ! नितम्बना के चक्कर में दुनियाँ के सारे मनुष्य प्राणी चिंतन में लग जाते हैं । और इसी नितम्बना के चलते, उनके अधिक मोह में लगे रहने के कारण साधु पुरुष को भी या महापुरुष को भी भय लगता है कि मार्ग कहीं बदल न जाय । हम उस देवी का आदर करते हैं । हम उनको दूसरे रुप में आदर करते हैं । जिस रुप में गृहस्थ करते हैं, उस रुप में नहीं । अघोरेश्वर जनों को उनकी याद में ही विश्वास है, न कि उनके सम्पर्क में । कुत्ता ही है, गाय बैल भी हैं, मगर वे नितम्बना का सेवन समय, काल और साल में एक बार पूजन करते हैं । मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो नितम्बना के चिंतन में सदा लगा रहता है । उस मनुष्य से क्या आशा की जा सकती है, जिसका मस्तिष्क नितम्बना के चरणों में बन्धक रह जाता है । कुत्ता भी है तो वह कुतिया के पास साल में रजस्वला होने पर जाता है । स्वजाति में जाता है, परजाति में नहीं । अगर्भवती में जाता है, गर्भवती में नहीं । मनुष्य स्वजाति में भी, परजाति में भी जाता है और समय काल को भी तिलाञ्जलि दिये रहता है ।”
अघोरपथ में चारों अंगों से ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है । ये चार अंग हैं‍ , १, मन २, कर्म ३, वचन या जिव्हा और ४, चक्षु । साधक को हर समय सावधान रहने की आवश्यकता होती है, अन्यथा काम को अपना पाँव पसारने में समय नहीं लगता ।अघोर साधना के मूल तत्व – चक्रपूजा
चक्रपूजा साधारण अर्थ में चक्राकार या गोलाकार बैठकर पूजन करना है । इसका प्रचलन शाक्त साधकों में बहुतायत से प्राप्त होता है । तन्त्र ग्रंथों में इसका उल्लेख बार बार आया है । कतिपय तन्त्र ग्रंथों में इसे महापूजा के नाम से भी अभिहित किया गया है । चक्र पूजा में आनन्द भैरव और आनन्द भैरवी का आवाहन एवं पूजन किया जाता है । कहीं कहीं अपने इष्ट देव का पूजन भी प्रचलित है । चक्रपूजा के कई प्रकार प्राप्त होते हैं । जैसेः भैरवी चक्र, राज चक्र, महा चक्र, देव चक्र, बीर चक्र, पशु चक्र आदि । साधारण जनों में भैरवी चक्र के प्रति अनेक भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं । वे इसमें कामक्रिया की प्रत्यासा करते हैं तथा इस चक्रपूजा के नाम पर निराधार, ऊलजलूल प्रक्रियाओं को अपना कर अपना और समाज दोनो की हानि करते हैं ।
शाक्त मत में कौल साधकों में भी चक्रपूजा करने का चलन है । वे घट तथा नव चरुओं की स्थापना करते हैं । घट में इष्ट देवी की पूजा होती है । नौ प्रकार के चरुओं को हेतू , कारण या मदिरा | द्राक्षा, गौडी, पैष्टी, धान्या, माध्वी, खार्जुरी, वाल्कली, पौष्पी, आदि मदिरा के प्रकार हैं । | से पूर्ण किया जाता है । बीर अपनी शक्ति सहित पूजन करते हैं । आज के समय में शाक्तों में भैरवी चक्र का अनुष्ठान “पुरी” नामधारी सन्यासियों के एक सुव्यवस्थित मण्डल द्वारा किया जाता है । वे ही इस विधान के अधिकारी साधक बतलाये जाते हैं ।
भारत के अलावा तिब्बत में भी चक्रपूजा अनुष्ठित होता रहा है । बौधों के एक सम्प्रदाय वज्रयानियों ने वहाँ इसे गणपूजा या गणचक्रपूजा का नाम दिया है । इसका स्वरुप स्थान , काल, और पात्र के अनुसार भिन्नता लिये हुए है .
अघोरपथ में भी चक्रार्चन किया जाता है । अघोरेश्वर, अघोराचार्य, अवधूत, गुरू के सानिध्य में यह चक्रार्चन सम्पन्न होता है । अघोरपथ में यह गोप्य पूजन माना जाता है । कभी कभी किसी अधिकारी शिष्य के दीक्षा संस्कार के लिये भी चक्रार्चन आयोजित होता है । चक्रार्चन सामान्यतः नवरात्री की अष्टमी तिथि को रात्री बेला में आयोजित होता है । अघोरेश्वर भगवान राम जी के एक शिष्य ने उसके दीक्षा संस्कार के समय आयोजित चक्रार्चन का विवरण कुछ इस प्रकार बतलाया हैः
” रात्रि के ग्यारह बजे के आसपास का समय रहा होगा । बाबा का बुलावा आया । बाबा के पास जाने पर आदेश हुआ कि बगल में बैठो । सकुचाते हुए बाबा के बगल में बैठ गया । और भी बहुत सारे लोग थे । एक गोल बनाकर सब बैठ गये । क्या होने वाला है मैं कुछ नही् जानता था । सबके सामने पत्तल रखा गया । बाबा से शुरु करके सबके पत्तलों में नाना प्रकार की खाद्य सामग्री परोसी गई । उसमे रोटी भी थी, चावल भी था, दाल भी थी, सब्जियाँ थीं, भुना माँस भी था । परोसने का क्रम बाबा से शुरू होता तथा बाबा के बाएँ से गोल घूमकर फिर बाबा के पास लोग पहुँच जाते थे । परोसने का क्रम समाप्त होने के बाद बाबा जी ने अपना खप्पर बाएँ हाथ में लेकर उपर उठाया । एक भक्त ने बाबा के खप्पर को दो तीन बोतल मदिरा डालकर भर दिया । बाबा ने कुछ मन्त्र बुदबुदाया तथा घोष किया ” ॐ शिवोहं, भैरवोहं, गुरुपदरतोहं ।” तत्पश्चात बाबा ने उस खप्पर से पान किया और पात्र बाएँ बैठे शिष्य की तरफ बढ़ा दिया । उस शिष्य ने भी खप्पर से एक घूँट पान कर आगे बढ़ा दिया । खप्पर इसी प्रकार आगे बढ़ते बढ़ते पुनः बाबा के हाथ मे आ गया । बाबा ने पुनः मन्त्रोच्चार किया और खप्पर में से पान कर पात्र बाईं ओर बढ़ा दिया । यह प्रक्रिया तीन बार चली । इसके बाद सामने रखे पत्तल में से एक एक ग्रास बाबा को सब लोग खिलाये, बाबा ने भी सबको अपने पत्तल में से खिलाया । उसके बाद भोजन हुआ । भोजन के पश्चात बाबा जी ने फिर कुछ मन्त्रोच्चार किया । फिर कुछ और तरह के मन्त्रोच्चारण हुए, जिसमे हम सब लोग बाबा जी के साथ उच्चारण किये । इसके बाद बाबा जी के श्री चरणों में हम सब प्रणाम निवेदन करने लगे । बाबा सबको आलिंगन करते थे । और चक्रपूजन समाप्त हुआ ।”

2…सन् १९९२ ई० के मध्य में फिर से पूज्य बाबा का स्वस्थ्य बिगड़ने लगा । उनका प्रत्यारोपित गुर्दा ठीक काम कर रहा था । कोई और बिमारी भी नहीं थी परन्तु बाबा का स्वस्थ्य गिरता जा रहा था । विशेषज्ञों की सलाह पर बाबा का अमेरिका जाना तय हुआ । बाबा ने भी सहमती दे दी । निश्चय हुआ कि बाबा को न्यूयार्क के माउन्ट सिनाई चिकित्सालय में उपचारार्थ भर्ती कराया जाय । बाबा की सेवा के लिये बाबा के अनन्य शिष्य श्री हरी पाण्डेय जी, जो श्री सर्वेश्वरी समूह के सोनोमा शाखा के उपाध्यक्ष तथा अँग्रेजी पत्रिका श्री सर्वेश्वरी टाईम्स के सम्पादक हैं, बाबा अनिल राम, एवँ श्री जिष्णु शँकर जी हर पल बाबा के साथ थे ।
बाबा स्वस्थ हो जाने के पश्चात चिकित्सालय से लौटकर गुरुदेव निवास आ गये । उनकी पूर्ववत दिनचर्या शुरु हो गई । रात्रि में अधिकाँशतः पद्मासन में बैठ ध्यान में झूमते रहते थे । ध्यान टूटने पर प्रायः देशवासियों, भक्तों व श्रद्धालुओं के बारे में पूछा करते थे । देश और समाज की समस्याओं, विश्व में हो रही घटनाओं पर भी विचार विमर्श करते रहते थे । प्रायः कमजोरी की शिकायत करते थे । बाबा अनिल राम जी की शतत दृष्टि बाबा के स्वास्थ्य पर रहती थी । वे बाबा के रक्तचाप, शुगर और नाड़ी की गति की जाँच करते रहते थे ।
ध्यान के इन्ही क्षणों में अघोरेश्वर कुछ कुछ बुदबुदाया करते थे । एक दिन की उनकी वाणी हैः
” रमता है सो कौन, घटघट में विराजत है, रमता है सो कौन, बता दे कोई…….। ”
एक अन्य दिन बाबा ने जो बुदबुदाया उसे उनके सानिध्य तथा सेवा का लम्बे समय तक अवसर प्राप्त करनेवाले परम सतर्क एवँ संयमी शिष्य श्री हरी पाण्डेय जी ने नोट कर लिया था । वह इस प्रकार से हैः
” मैं अघोरेश्वर स्वरुप ही स्वतँत्र, सर्वत्र, सर्वकाल में स्वच्छन्द रमण करता हूँ । मैं अघोरेश्वर ही सूर्य की किरणों, चन्द्रमा की रश्मियों, वायु के कणों और जल की हर बूँदों में व्याप्त हूँ । मैं अघोरेश्वर ही पृथ्वी के प्राणियों, बृक्षों, लताओं, पुष्पों और बनस्पतियों में विद्यमान हूँ । मैं अघोरेश्वर ही पृथ्वी और आकाश के बीच जो खाली है उसके कण कण में, तृषरेणुओं में व्याप्त हूँ । साकार भी हूँ, निराकार भी हूँ । प्रकाश में हूँ और अँधकार में भी मैं ही हूँ । सुख में हूँ और दुख में भी मैं ही हूँ । आशा में हूँ और निराशा में भी मैं ही हूँ । भूत में, वर्तमान में, और भविष्य में विचरने वाला मैं ही हूँ । मैं ज्ञात भी हूँ और अज्ञात भी । स्वतँत्र भी हूँ और परतँत्र भी । आप जिस रुप में मुझे अपनी श्रद्धा सहेली को साथ लेकर ढ़ूँढ़ेंगे मैं उसी रुप में आपको मिलूँगा ।”
सत्यम्, सत्यम्, सत्यम् ।
दि. २३ नवम्बर सन् १९९२ ई० को सब कुछ सामान्य था । बाबा की उस दिन बहुत ही सौम्य और शान्त मुद्रा थी । वे अन्तर्मुखी हो बैठे बैठे झूमते रहे जैसा कि वे प्रायः करते थे । शाम को आपने मछली बनाने के लिये कहा । बाजार से लाकर मछली पकाई जाने लगी । बाबा अपने शयन कक्ष में विश्राम के लिये चले गये । शाम के सात बजे बाबा अनिल राम जी ने बाबा के रक्तचाप, शुगर और नाड़ी की गति की परीक्षा की, सब कुछ सामान्य था । ऐसे अवसरों पर बाबा प्रायः पूछते रहते थे कि ब्लड प्रेसर कितना है, शुगर कितना है परन्तु उस दिन उन्होने कुछ नहीं पूछा । पद्मासन में बैठे बैठे पूज्य अघोरेश्वर ने अपना मेरुदण्ड सीधा किया और कुछ क्षणों के उपराँत धीरे से दाँई करवट हो बिस्तर पर लेट गये ।
श्री जिष्णुशँकर जी पास में ही बैठे थे । बाबा के इस प्रकार लेटने से उनको अनिष्ठ की आशँका हुई । उन्होने तत्काल अनिल बाबा और श्री हरी पाण्डेय जी को आवाज लगाया । दोनो दौड़े आये । पुकारने या हिलाने डुलाने से बाबा के शरीर में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई । अनिल बाबा तुरन्त आक्सीजन देने लगे । श्री हरी पाण्डेय जी ने डाक्टर से सम्पर्क कर एम्बुलेन्स मँगाई । अगले दस मिनट के भीतर एम्बुलेन्स आ गयी । बाबा को चिकित्सालय ले जाया गया । कैटस्केन करने के बाद डाक्टर ने बतलाया कि हैमरेज हुआ है । डाक्टर के अनुसार ऐसा हेमरेज उसने पहले कभी नहीं देखा था । वह बोले कि ४८ घँटों के बाद ही कुछ बता पायेंगे । इन ४८ घँटों में बाबा के हृदय तथा नाड़ी की गति सामान्य बनी रही । रक्तचाप और तापमान भी सामान्य बनी रही । बाबा इस निर्विकल्प समाधि की स्थिति में ४८ घँटों की सीमा पार कर गये परन्तु समाधि से उपराम होने के कोई लक्षण नहीं दिखे ।
२५ नवम्बर को सुबह से ही निराश, हताश भक्तों को कुछ आशा बँधी । अघोरेश्वर के कुछ एक अँगों में हरकत हुई और आँखों में हल्की ही सही ज्योति आई । चिकित्सा विज्ञान के अनुसार इस प्रकर का शारीरिक परिवर्तन असंभव है, परन्तु डाक्टर लोग भी निर्विकल्प समाधि की चर्चा सुन चुके थे, अतः वे सब भी आशावान दिखे । भारत में सभी को इस परिवर्तन से अवगत करा दिया गया । सभी शिष्यों, भक्तों, श्रद्धालुओं में आशा का संचार हो गया । सभी को आशा बँध गयी कि अघोरेश्वर इतनी जल्दी शरीर त्याग नहीं करेंगे । वे जरुर निर्विकल्प समाधि में हैं और उचित समय पर समाधि से उपराम होकर सबके बीच आयेंगे ।
२६ नवम्बर को बाबा की अनन्य भक्त एवं शिष्या रोजमेरी जी आ गई । आते ही वे बाबा की सेवा में लग गईं । उन्होने नर्स से पूछाः ” क्या बाबा सुन सकते हैं ? ” नर्स ने बताया कि शायद श्रवण शक्ति ही अँत में बिलुप्त होती है । रोजमेरी जी ने बाबा के कान के पास जाकर कहाः ” बाबा ” ! और चमत्कार हो गया । तीन दिनों से पड़े बाबा के निस्पन्द शरीर से सहसा बायाँ हाथ वेग से उठा और सटाक् से सीधे सिर के पास आकर पड़ रहा । रोजमेरी हर्षातिरेक से अचम्भित । पास में उपस्थित श्री जिष्णुशँकर जी स्तब्ध । कुछ क्षण के बाद रोजमेरी जी ने पुनः कहाः ” बाबा ! हम सभी यहाँ हैं । हम सभी आपसे प्यार करते हैं ।” बाबा का शरीर निस्पन्द रहा । धीरे धीरे करके बाबा के शरीर में यदाकदा होने वाली फड़कन भी बिलुप्त होती गई ।
२६ और २७ नवम्बर को भी यही स्थिति बनी रही । बाबा गुरुपद संभव राम जी एवँ पँकज जी दिल्ली से रवाना हो गये थे । बाबा प्रियदर्शी राम जी को बीजा के मिलने में आ रही कठिनाई के कारण दिल्ली में समय लगा । बाबा गौतम राम जी बनारस में रहकर समस्त भक्तों को सम्भाल रहे थे । २८ नवम्बर का दिन । बाबा गुरुपद संभव राम जी का प्लेन संध्या तक न्यूयार्क पहुँचने वाला था । वे शाम छै बजकर ३० मिनट पर सीधे अस्पताल पहुँच गये । श्री हरि पाण्डेय जी और बाबा अनिल राम ने अघोरेश्वर की स्थिति से उन्हें अवगत कराया । वे बाबा के पास भीतर गये । उन्होने अपना संजोया हुआ रुमाल दाहिने हाथ में लेकर बाबा के मस्तक पर फेरा । कुछ बोले नहीं । कुछ क्षणों बाद बाहर आ गये । थोड़ी ही देर में बाबा के डाक्टर बाहर आये और बोले कि लगता है बाबा ने निर्णय ले लिया ।
शाम के सात बज रहे थे । रक्तचाप नापने वाली मशीन एकाएक घँटी बजाकर आपात स्थिति सूचित करने लगती है । जिष्णुशंकर जी नर्स को बुला लाते है । डाक्टर भी आ जाते हैं । बाबा का रक्तचाप लगातार गिरता जा रहा है । डाक्टर द्वारा किया गया कोई भी उपाय कारगर नहीं हो रहा है । और सब कुछ समाप्त ।
डा. बरोज दौड़े दौड़े आये । बाबा के पार्थिव शरीर को प्रणाम कर अश्रुपात करते हुए उन्होने कहाः ” बाबा हमारी चिकित्सा पद्धति से परे के जीव थे । उन्होने चिकित्सा जगत के हर नियमों का सम्मान भी किया और उन्हें पीछे छोड़कर आगे भी बढ़ गये । वह हमारे ज्ञान से परे थे । हम उन्हें प्रणाम करते हैं । मैंने उनके सानिध्य में बहुत कुछ सीखा, पाया, देखा । उनकी सेवा कर मैं भी धन्य हो गया ।”
रात्रि के दस बजे तक सारी औपचारिकतायें निपट गई । बाबा के पार्थिव शरीर को लेकर हम शव गृह पहुँचे । माननीय श्री चन्द्रशेखर जी की पहल पर भारतीय दूतावास के सहयोग से बाबा के पार्थिव शरीर को पद्मासन में ही लकड़ी की विशेष वातानुकूलित बाक्स में स्थापित कर, एयर इण्डिया की उड़ान के हिमालय नामक विमान से दिल्ली लाया गया । दिल्ली पहुँचने पर भुवनेश्वरी आश्रम, भोंड़सी में पूजन और दर्शन का आयोजन हुआ । उसके उपराँत विशेष विमान से पार्थिव शरीर को दिल्ली से बनारस लाया गया ।
3……अमेरिका में न्यूयार्क स्थित माउन्ट सिनाई चिकित्सालय से पूज्य बाबा दि. २८ जनवरी १९८८ को सम्पन्न सफल आपरेशन के पश्चात पूर्णतः स्वस्थ होकर बनारस लौट आये । बाबा के डाक्टर श्री बरोज, उनके सहयोगी, नर्स तथा अन्य सभी ने बाबा के स्वास्थ्य के लिये प्रार्थना की एवँ भावभीनी बिदाई दी थी । डाक्टर बरोज ने कई आश्चर्यजनक घटनाओं को घटित होते प्रत्यक्ष देखा था । उनका चिकित्साशास्त्र जनित ज्ञान अनेक अवसरों पर असफल सिद्ध हो चुका था । इन सब बातों से उनका श्रद्धावनत होना स्वाभाविक ही कहा जायेगा । बिदाई के अवसर पर डाक्टर बरोज ने एक श्रद्धालु की तरह बाबा के चरणों प्रणिपात किया था । स्वदेश लौटकर बाबा समयानुकूल सभी नित्यक्रियायें, दवाई, भोजन लेने लगे । पुरानी दिनचर्या में लौटने के बाद भी बाबा को इन्फेक्शन से बचाव के लिये कुछएक बँदिशों का पालन करना ही पड़ता था । सन् १९८९, से १९९१ ई० में प्रतिवर्ष एकबार रुटीन चेकप के लिये बाबा अमेरिका जाते रहे । सबकुछ ठीकठाक चल रहा था ।
पश्चिमी बिहार में बसे सासाराम नाम का कस्बा अपने उच्चमना एवं कर्मवीर पुत्रों के कारण सारे भारत में प्रसिद्ध है । बनारस के समीप तथा मुख्यमार्ग पर अवस्थित होने के कारण यहाँ के निवासी उच्चशिक्षा, स्वास्थ्य आदि के निमित्त काशी जाना पसन्द करते हैं । इसी कस्बे में पुरातन काल के जमींदार, अब के सम्पन्न किसानों का एक राजपूत परिवार रहता है । सदाचारी तथा धार्मिक होने के कारण इस परिवार का पुरातन काल से ही कीनारामी आश्रम क्रींकुण्ड स्थल से सम्पर्क रहा है । साधु, सन्यासी,सन्त, महात्माओं का आदर, सत्कार, एवं सेवा यह परिवार हमेशा से करता आया है । इसीलिये सन्त महात्माओं का आना इस परिवार में निरंतर होता ही रहता है ।

इसी परिवार में दि.२९ मार्च १९६५ ई० को बाबा जी का जन्म हुआ था ।
पिताः आपके पिता का नाम श्री सीताराम सिंह है । श्री सिंह धार्मिक विचारों के सहृदय पुरुष हैं । अतिथि , अभ्यागत, साधु, सन्तों के आतिथ्य में आपको रस मिलता है । स्वयँ भी योग क्रियाओं के जानकार हैं तथा अभ्यास रत रहते हैं । इसके अलावा आपकी रुचि राजनीति में भी रही है । आप अपने समय के प्रसिद्ध समाजवादी रहे हैं । साफ सुथरे , सिद्धाँतवादी श्री सीताराम सिंह का नाम समाजवादी हलकों में बड़े ही आदर से लिया जाता है । आपके घर लगभग सभी बड़े समाजवादी नेता आते जाते रहे है ।
माताः आपकी माता का नाम श्रीमती कमला देवी सिंह है । आप गँभीर प्रकृति की बड़ी ही बिदुषी महिला हैं । पूज्य अघोरेश्वर भगवान राम जी के सानिध्य में आप बहुत दिन रही हैं । कहते हैं अघोरेश्वर आपको कमला के नाम के बदले पार्वती के नाम से बुलाते थे । अपने बच्चों का धार्मिक वातावरण में लालन पालन, सद्विचार तथा सदा सत्य की ओर अभिप्रेरण और अघोरेश्वर का सानिध्य प्रदान करने के कारण ही आपके पुत्र में गुणों का वर्तमान विकास दिखलाई पड़ रहा है ।
शिक्षाः आप मुड़िया दीक्षा के समय उदय प्रताप कालेज, वाराणसी में बीएससी की पढ़ाई कर रहे थे । शिक्षा के अलावा खेल, शस्त्र सँचालन, कुश्ती कला आदि में भी आपकी रुचि थी ।
सँस्कारः आपका पहले से ही क्रींकुण्ड आश्रम में आनाजाना था । घर में भी साधु, सन्यासियों से मिलना होता रहता था । आप कालेज की पढ़ाई में एकनिष्ट भाव से लगे हुए थे, परन्तु विधि का विधान कुछ और था । आपके पूर्व जन्मों के पुण्य का उदय कहें कि अघोरेश्वर की कृपा दृष्टि, आप अघोरेश्वर के शरण में दिसम्बर १९९० में पहुँच गये ।
आपका योगी दीक्षा , संस्कार, मुड़िया दीक्षा दि. २८.०४.१९९१ को बनारस में पड़ाव स्थित औघड़ भगवान राम कुष्ट सेवा आश्रम में सम्पन्न हुआ । आपने लेखक को एक दिन चर्चा में अपनी दीक्षा की अलौकिक बिधि के विषय में बताते हुए कहा था कि अघोरेश्वर उस समय विशेष में जिस रुप में रहते हैं वह अकल्पनीय है । परमेश्वर, ब्रह्म यदि मानव रुप में प्रकट हो जाय तो वह उसी रुप में, उसी स्थिति में होगा जैसा कि अघोरेश्वर थे । गोपनीय होने के कारण दीक्षा विधि की चर्चा यहाँ हम नहीं कर पा रहे हैं ।
आश्रम योजनाः बाबा जी के जनसेवा अभेद आश्रम, नारायणपुर, जिला जशपुर में निवास काल में अघोरेश्वर के शिष्य श्री मधुचन्द्र की सारंगी जी एवं उनकी धर्मपत्नि श्रीमती गिन्नी सारंगी सम्पर्क में आये थे । सारंगी जी कुरुडेग, जिला गुमला, झारखण्ड के पूर्व जमींदार साहब के छोटे सुपुत्र थे । आपका विवाह जशपुर नगर के अघोरेश्वर भक्त प्रसिद्ध महापात्र परिवार में हुआ था । श्री मधु बाबू की प्रेरणा से उनके परिवार ने कुरुडेग में गाँव के समीप तालाब के नीचे की ६,७ एकड़ जमीन, गाँव में निर्मित श्री राधाकृष्ण मंदिर और फलों का बगीचा बाबा को आश्रम बनाने के लिये दान कर दिया । उक्त भूमि पर बाबा ने सुन्दर आश्रम का निर्माण कराया है । स्थानीय आदिवासी लोगों की भलाई के अनेक कार्यक्रम बाबा संचालित करते रहते हैं । कहा जाता है कि बाबा ने इस आश्रम में कई अनुष्ठान किये हैं । उनके कठिन तप के कारण यह स्थान एक जाग्रत शक्तिपीठ बन गया है । अनेक साधक इस बनस्थली में स्थित आश्रम में आकर साधना करते हैं तथा सफल मनोरथ होते हैं । आपका मुख्य आश्रम महुआटोली, जिसके नाम से आप जाने जाते है, | महुआटोली वाले बाबा जी |जशपुर जिले में कुनकुरी से छै किलोमीटर की दूरी पर रायगढ़ जशपुर मुख्य मार्ग पर स्थित है । एक मँदिर, बाबा का निवास, श्रद्धालुओं हेतु निवास, गौशाला तथा अत्यंत मनोहर बाग बागीचा से सुसज्जित यह आश्रम शाँति का आलय तथा एकाँत साधना के लिये उत्तम बन पड़ा है ।
अन्य आश्रम रायपुर, दिल्ली में हैं ।जनसेवा के कार्यः
बाबा ने जशपुर जिले के काँसाबेल कस्बे के समीप एक कालेज स्थापित किया है । रायपुर में आपके शिष्यगण झुग्गी झोपड़ी के निवासियों के बच्चों के लिये रात्रि स्कूल चलाते हैं । कुरुडेग आश्रम में अघोरेश्वर के निर्वाण दिवस पर विगत कई वर्षों से विशाल भँडारा तथा गरीबों को कँबल, कपड़ा आदि वितरण का कार्यक्रम चलता है । इस आश्रम से गरीबों को निशुल्क दवा वितरण का कार्य भी किया जाता है .
3……बाबा भगवान राम जी
” तन मारा , मन बस किया
सोधा सकल सरीर ।
काया को कफनी किया
वाको नाम फकीर ।। ”
अघोरेश्वर जाति, धर्म, भाषा,देश, लिंग जैसी समस्त संकीर्णताओं को नकार कर एक पूर्ण मानव के रुप में इस धरती पर बिचरते थे । उनका जीवन साम्प्रदायिक प्रेम और सदभावना का उत्कृष्ठ उदाहरण रहा है । अपने आध्यात्मिक जीवन के आरम्भ में वे बनारस शहर में ही एक हाजी साहब के बगीचे में रहते थे । उनके शिष्यों, श्रद्धालुओं में युरोप और अमेरिका तक के मुमुक्षु लोग शुमार हैं । इनमें महात्मा उम्बर्तो बीफी जी का नाम सर्वोपरी है । बाबा की सरल भोजपुरी मिश्रित हिन्दी भाषा से नितान्त अपरिचित पश्चिमी देशों के ये शिष्य एक रहस्यमय अलौकिक चमत्कार की भाँति अघोरेश्वर के उपदेशों को आत्मसात कर समाज सेवा और आत्मोन्नति के मार्ग में लगे हैं । ” एक मौन‌ ‍‌भाषा, बहु भावमयी । ” कदाचित बाबा ने मन के तार जोड़कर शिष्यों का संशय छिन्न कर दिया ।
सन् १९८३ ई० में अघोरेश्वर ने अपने तीन मुड़िया साधुओं बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी, बाबा प्रियदर्शी राम जी और बाबा गुरुपद संभव राम जी को एक महती सभा में प्रस्तुत किया । ये तीन तपःपूत दिब्य आत्माएँ अघोरेश्वर के निजी संरक्षण और निरीक्षण में तप कर निकले अघोरेश्वर के प्रतिरुप बनने की समस्त संभावनायें लिये हुये थे । बस काल की प्रतिक्षा भर शेष थी । अघोरेश्वर की दिव्य दृष्टि अपने इन तीन रत्नों के सुदूर भविष्यत् को भी देख पाने में सक्षम थी तभी तो क्रीं कुण्ड आश्रम जैसे स्थल के महंथ के पद पर बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी का अभिषेक महज नौ वर्ष की बयस में कर दिये थे । यह कार्य अघोरेश्वर भगवान राम जी ही कर सकते थे ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी की दृढ़ मान्यता थी कि समाज की व्यवस्थायें देश, काल और परिस्थिति के अनुसार बदलनी चाहिये । पहले औघड़ जीवन में शराब एक अभिन्न और अनिवार्य वस्तु के रुप में व्यवहृत होती थी, परन्तु आपने मद्यपान पर कठोर प्रहार किया और इसका पूर्ण निषेध कर दिया । बाबा की वेशभूषा सादा हुआ करती थी । वे कहा करते थे कि पूर्व में औघड़ रौद्र रुप में रहा करते थे, क्योंकि विदेशी दासता के दिनों में अत्याचारियों का दर्प दमन करने के लिये रौद्र रुप और चमत्कारों की आवश्यकता थी किन्तु स्वधीन भारत में मैत्री, प्यार और करुणा की आवश्यकता है ।
अघोर साधना के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि देश भर से इतनी बड़ी संख्या में स्त्री , पुरुष अघोरपथ पर चलना शुरु किये । अघोरी समाज के करीब आये । मानव समाज ने उन्हें आदर सहित न केवल स्वीकार किया वरन् अपनी श्रद्धा सुमन भी अर्पित किया । इन ऐतिहासिक घटनाओं के सूत्रधार परम पूज्य अघोरेश्वर भगवान राम जी ही थे ।
श्री तेज प्रताप सिनहा उर्फ पोली जी
बनारस निवासी गृहस्थ साधु पोली जी अघोरेश्वर के अन्यतम शिष्यों में से एक हैं । आपकी गुरु निष्ठा, सेवा, तप अतुलनीय है । अघोरेश्वर निश्चय ही पोली जी के रुप में गृहस्थ साधु शिष्य गढ़कर दिखा दिया कि अघोरी केवल गृहत्यागी साधु ही नहीं बल्कि गृहस्थी का सुसंचालन करते हुए भी हो सकते है । आप उच्चमना, सन्त, महापुरुष हैं । आपपर अघोरेश्वर का स्नेह बरसने का एक उदाहरण निम्नानुसार है ।
बाबा के परम भक्त, कृपाप्राप्त शिष्य श्री बी पी सिन्हा जी ने बाबा की दूरदृष्टि ओर सर्वज्ञता की ओर इशारा करते हुए श्री सर्वेश्वरी समूह द्वारा सन् १९८८ में प्रकाशित अपने ग्रँथ ” अघोरेश्वर भगवान राम , जीवनी” में इस महत्वपूर्ण घटना का विवरण कुछ इस प्रकार दिया हैः
” सन् १९८३ की २४ जुलाई को हुए गुरु पूर्णिमा का अपना अलग महत्व है । श्री सर्वेश्वरी समूह का विस्तार जिस तेजी से हो रहा था, उसे देखते हुए अघोरेस्वर ने उसके भविष्य की व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिये उस दिन अपने चार प्रमुख शिष्यों को अलग अलग क्षेत्रों के लिये अपना उत्तराधिकारी घोषित कर उनका अभिषेक किया ।अघोरेश्वर महाप्रभु ने अवधूत भगवान राम ट्रस्ट के अध्यक्ष पद पर अपने बाद शर्ी गुरुपद स्भव राम जी को मनोनित किया । श्री गुरुपद संभव राम मध्य प्रदेश के नरसिंह गढ़ रियासत के भूतपूर्व महाराजा श्री भानु प्रताप सिंह के पुत्र हैं । मध्यप्रदेश की शाखाओं का भार प्रियदर्शी राम जी को दिया गया । श्री सिद्धार्थ गौतम राम जी को पहले ही क्रीं कुण्ड के महंथ पद पर आसीन किया जा चुका था । श्री सर्वेश्वरी समूह के अध्यक्ष पद के लिए श्री तेज प्रताप सिन्हा ,उर्फ पोली जी को मनोनित कर चारों प्रमुख शिष्यों का अभिषेक किया गया । इनमें प्रथम तीन तो वितराग साधु हैं और श्री तेज प्रताप सिन्हा गृहस्थ साधु होंगे ।”
सन् १९८५ ई० के आते आते अघोरेश्वर के तप, तितिक्षा, परमार्थ, सेवा का अनवरत कार्य, आदि ने उनके शरीर को रोगग्रस्त कर दिया । इलाज चलता रहा और करुणा मूर्ति अघोरेश्वर अपने कार्य में लगे रहे । विश्राम के लिये अवकाश ही नहीं था । इसी बीच बाबा ने ” अघोर परिषद ट्रष्ट” की स्थापना कर दिनांक २६.०३.१९८५ ई० को पंजीकरण कराया ।
बाबा की अस्वस्थता दिनों दिन बढ़ती जा रही थी । एक गुर्दा काम करना लगभग बंद कर दिया था । देश में उपलब्ध चिकित्सा से लाभ नहीं हो रहा था । चिकित्सकों के द्वारा गुर्दा प्रत्यारोपण की आवश्यकता बताई जा रही थी । अंततः शिष्यों और भक्तों के विशेष आग्रह, निवेदन, प्रार्थना पर अघोरेश्वर चिकित्सार्थ अमेरिका जाने के लिये तैयार हुए । फलस्वरुप २७ अक्टूबर १९८६ ई० को अमेरिका के लिये प्रस्थान किया । दिनाँक १० दिसम्बर सन् १९८६ ई० को न्यूयार्क के माउन्ट सिनाई अस्पताल में सर्जन डा० लुईस बरोज द्वारा बाबा के शिष्य श्री चन्द्रभूषण सिंह उर्फ कौशल जी के गुर्दे का बाबा के शरीर में प्रत्यारोपण किया । आपरेशन सफल रहा । कुछ समय के स्वास्थ्य लाभ के पश्चात बाबा स्वस्थ होकर भारत वापस लौट आये ।
लगभग एक वर्ष पश्चात बाबा का स्वास्थ्य फिर से नरम गरम होने लगा । विशेषज्ञों के अनुसार प्रत्यारोपित गुर्दा ठीक से काम नहीं कर रहा था । विषय विशेषज्ञ डाक्टरों की सलाह पर बाबा को पुनः आपरेशन के लिये अमेरिका जाना पड़ा । गुर्दा प्रत्यारोपण का दूसरा आपरेशन दिनाँक २८ जनवरी सन् १९८८ ई० को डा० लुईस बरोज के ही हाथों सम्पन्न हुआ । इस बार बाबा जी की इच्छानुसार उनके युवा शिष्य बाबा अनिल राम जी का गुर्दा प्रत्यारोपित किया गया ।
बाबा अनिल राम जी
” भगति, भगत, भगवान, गुरु, चारों नाम वपु एक ।”
पूज्य बाबा भगवान राम जी ने कभी अपने भक्त, शिष्य, श्री जिष्णुशँकर जी को समझाया था । बाबा अनिल राम जी उक्त वाणी को चरितार्थ करते हैं । बाबा की भक्ति में वे लीन हैं अतः भक्त हैं । अघोरेश्वर ही उनके भगवान हैं । अघोरेश्वर उनके गुरु भी हैं । इस प्रकार चारों नाम बाबा अनिल राम जी नामक एक वपु में समाहित हैं ।
बाबा अनिल राम जी को बाबा की सेवा में रहने का बहुत अवसर मिला है । सन् १९८६ ई० में बाबा का किडनी प्रत्यारोपण हुआ था । तब बाबा के शिष्य श्री चन्द्रभूषण सिंह उर्फ कौशल जी के गुर्दे काम आया था । उसी वर्ष एक दिन आगत निगत को जाननेवाले बाबा ने अनिल जी से गुर्दा देने के विषय में पूछ लिया था और लेश मात्र झिझक के बिना ही इस “महावीर भक्त” ने “हाँमी” भर दी थी । समय बीतने के साथ यह बात किसी के ध्यान में नहीं रही थी । सन् १९८७ ई० के अँत में जब बाबा का इलाज के लिये अमेरिका जाने का कार्यक्रम बना, जाने वालों में अनिल जी का नाम नहीं था । अँतिम समय में बाबा स्वयँ होकर बोले कि अनिल जी भी जायेंगे । जनवरी १९८८ में बाबा का दूसरा किडनी प्रत्यारोपण होना था । उपस्थित सभी भक्तों ने अपने अपने रक्त की जाँच कराई परन्तु श्री अनिल जी का ही गुर्दा मेल खाता प्रतीत हुआ । श्री अनिल जी के गुर्दा के साथ बाबा का यह दूसरा आपरेशन दिनाँक २८ जनवरी सन् १९८८ ई० को डा० लुईस बरोज के ही हाथों सम्पन्न हुआ ।
बाबा अनिल राम जी बाबा की सेवा में अँत तक सतत लगे रहे । गुरु सानिध्य का लाभ जितना बाबा अनिल राम जी को मिला है, शायद ही किसी और को मिला होगा ।
बाबा अनिल राम जी बहुत वर्षों तक इटली के आश्रम में रहे हैं । वर्तमान में बनारस में महाविभूतिस्थल के समीप आपका आश्रम ” अघोर गुरु सेवा पीठ ” स्थापित है । जन सेवा के अनेक कार्य जैसे स्कूल, निशुल्क चिकित्सा, बालोपयोगी तथा प्रेरक साहित्य का प्रकाशन, बाबा इसी आश्रम से संचालित करते हैं ।
4……बाबा कीनाराम जी
अघोर साधकों, श्रद्धालुओं, भक्तों, उपासकों की तीर्थस्थली क्रींकुण्ड स्थल की स्थापना अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी द्वारा सोलहवीं सदी के पूर्वार्ध में किया गया था । उस समय उत्तर भारत, खासकर काशी एवं पूरे भारतवर्ष के हर क्षेत्र की सामाजिक, धार्मिक स्थिति का विवरण जो अधिकारी विद्वतजन द्वारा प्रकाशित कराया गया है के आधार पर संक्षिप्त रुप से दिया जा रहा है ।
उस काल खण्ड में लोग अनुभव करने लगे थे कि आत्मतत्व की प्राप्ति के लिये वेदाध्ययन, कर्मकाण्ड और दान दक्षिणा व्यर्थ हैं । ब्राह्मणों के द्वारा विभिन्न ब्रत, नियमों, सत्यनारायण कथा, आदि का आविष्कार किया गया । शायद ॠषि उद्दालक एवं आरुणी के नेतृत्व में कर्मकाण्ड के विरुद्ध आँदोलन चला । यही कारण था कि हिन्दू वर्णाश्रम के अन्तर्गत उच्च जातियों द्वारा उपेक्षित होकर छोटी कही जाने वाली जातियाँ बौद्ध, ईसाइ, और इस्लाम जैसे शून्यवाद, एकेश्वरवादी नई चेतनाओं की ओर आकृष्ठ हो गईं । उच्च जाति के हिन्दू भी एकेश्वरवादी इस्लाम की ओर खिंच कर मुसलमान हो गये और शेख, पठान, और मुगल कहलाने लगे जो मुसलमानों में उच्च जातियाँ समझी जाती हैं । इस प्रवृत्ति पर महात्मा कबीर, रामानन्द, कीनाराम, नानक आदि उदार चरित महापुरुषों के आविर्भाव से रोक लगी ।
महात्मन रामानन्द जी ने कहा थाः
“निगुरा बाभन न भला, गुरुमुख भला चमार ।” यदि चमार गुरुमुख था तो रसोई से लेकर पूजा तक और रामानन्द जी के सानिध्य में उसको वही आदर का स्थान प्राप्त था जो किसी भी उच्च वर्ण वाले को था । तत्कालीन धार्मिक और सामाजिक वातावरण से क्षुब्ध होकर प्रतिकार के उद्देश्य से ही सन्त तुलसी दास जी ने रामायण का प्रणयन किया था ।
उस काल की स्थिति का चित्रण यूरोपियन यात्री बर्नियर, तावेर्नियर तथा पीटरमँडी ने अपने बयानों में किया है । फ्राँसीसी यात्री तावेर्निये ने लिखा हैः ” ब्राह्मण गँगास्नान एवँ पूजापाठ के पश्चात भोजन बनाने में अलग अलग जुट जाते थे और उन्हें सदा यह भय लगा रहता था कि कहीं कोई अपवित्र आदमी उन्हें छू न ले । एक ओर तो यह स्थिति थी और दूसरी ओर शाहजहाँ के हूक्म से बनारस के अर्धनिर्मित मंदिरों को गिराया जा रहा था, जिसका विरोध भी हो रहा था । पीटर मंडी ने ऐसे ही एक राजपूत की लाश पेड़ से लटकते देखी थी जो मंदिरों को नष्ट करने के लिये तैनात किये गये हैदरबेग और उसके साथियों को मार डाला था । यह घटना ई० सन् ०३ दिसम्बर १६३२ की है ।
औरंगजेब के शासन काल में २ सितम्बर, १६६९ ई० को बादशाह को खबर दी गई कि बनारस में विश्वनाथ का मँदिर गिरा दिया गया और उसपर ज्ञानवापी की मस्जिद भी उठा दी गई ।
उक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि हिन्दू समाज की अवस्था सभी दृष्टिकोणों से जर्जर हो चुकी थी और वह प्रायः निष्प्राण और चेतना शून्य होकर निहित स्वार्थ वाले वर्ण और वर्गों के लोगों के हाथ कठपुतली से अधिक नहीं रह गया था । मुसलमान शासक हिन्दूधर्म और समाज पर भिन्न भिन्न ढ़ँग से कुठाराघात कर रहे थे और हिन्दू राजा और जमींदार मुस्लिम शासकों के गुलाम से अधिक नहीं रह गये थे । दोनो मिलकर बर्बरता और निष्ठुरता से प्रजा का शोषण और दोहन कर रहे थे ।
ऐसे समय में बाबा कीनाराम जी ने सामाजिक जीवन को सत्य और न्याय पर आधारित होने का दर्शन दिया । उन्होने समाज में व्याप्त अन्याय, अत्याचार तथा अनैतिकता को दूर करने के लिये अधिकारी वर्ग और सत्ताधारियों के विरुद्ध संघर्ष किया और उनका विरोध किया । उन्होने देश भर में व्यापक भ्रमण किया और अन्याय के निराकरण का शतत प्रयास करते रहे ।
भारत में आज की परिस्थितियाँ कमोवेश महाराज कीनाराम जी के समय जैसी ही हैं । समाज में हर स्तर पर बिखराव आ रहा है । भ्रष्टाचार का बोलबाला है । अधिकारी, नेता जन साधारण के हित चिन्तन के बजाय स्वार्थपूर्ति में लगे हुए हैं । चारों तरफ शोषण तथा उपेक्षा का खेल खुलकर खेला जा रहा है । स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं । सक्षम लोगों का नैतिक अधोपतन हो गया है । समाज बिखँडित होने के कगार पर है । उपेक्षित होकर छोटी कही जाने वाली जातियाँ , दलित वर्ग की जातियाँ समानता से आकर्षित होकर बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म अपना रही हैं । ईसाइ और मुसलमान धर्म में भी धर्मान्तरण जारी है ।
ऐसे समय में महाराज कीनाराम जी जैसे महापुरुष , जो समाज को सही राह दिखाये तथा अनाचार एवं शोषण के विरुद्ध समाज को जागरित कर सके की नितान्त आवश्यकता है ।
पुनरागमन…बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी
अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी ने क्रींकुण्ड स्थल के विषय में कहा था कि इस स्थल के ग्यारह महन्थ होंगे , उसके बाद वे स्वयँ आयेंगे । अघोराचार्य बाबा राजेश्वर राम जी स्थल के ग्यारहवें महन्थ थे । बारहवें महन्थ के रुप में बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी अभिषिक्त हुए हैं । शिष्य, श्रद्धालु, और भक्त समुदाय की मानें तो वर्तमान क्रींकुण्ड स्थल के महन्थ बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी के अवतार हैं ।
बाबा का जन्म, परिवार तथा शैशव काल की जानकारी अप्राप्त है । जितने मुँह उतनी बातें । हम सुनी सुनाई बातों की चर्चा नहीं कर रहे हैं । बाबा को लगभग ६ या ७ वर्ष की आयु में अघोरेश्वर भगवान राम जी के साथ पड़ाव आश्रम में देखा गया था । बाबा को लेखक ने भी उक्त अवस्था में पड़ाव आश्रम में देखा था ।
बाबा राजेश्वरराम जी सन् १९७७ ई० के अंतिम महीनों में अश्वस्थ हो गये थे । उनकी सेवा सुश्रुषा और इलाज की व्यवस्था स्थल में ही की गई थी । बाबा ने अब समाधि ले लेने का निर्णय कर लिया । एक दिन बाबा राजेश्वरराम जी ने अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी को अपनी इस इच्छा से अवगत कराया कि उनके बाद क्रींकुण्ड आश्रम के महंथ का पद बाबा भगवान राम जी संभालें । बाबा भगवान राम जी ने सविनय निवेदन किया कि ” मैंने तो समाज और राष्ट्र की सेवा का ब्रत ले लिया है । महंथ पद पर आसीन होने से उस ब्रत में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है ।” अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी ने क्षमा याचना करते हुए एक योग्य व्यक्ति को महंथ पद पर नियुक्ति के लिये प्रस्तुत करने का वचन दिया । अगले ही दिन अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी बालक सिद्धार्थ गौतम राम को लेकर गुरु चरणों में उपस्थित हुए, जिन्हें पारंपरिक एवं कानूनी औपचारिकताएँ पूर्ण करने के उपराँत क्रींकुण्ड आश्रम का भावी महंथ घोषित कर दिया गया ।
बाबा राजेश्वरराम जी का शिवलोक गमन १० फरवरी सन् १९७८ ई० को हुआ था ।
क्रींकुण्ड स्थल के बारहवें महंथ के रुप में बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी का अभिषेक सम्पन्न हो गया । अभिषेक के समय बाबा की आयु लगभग नौ वर्ष की रही होगी । अघोरेश्वर भगवान राम जी ने महंथ जी के आध्यात्मिक शिक्षा दीक्षा के अलावा जागतिक पढ़ाई का भी प्रबंध कर दिया था । सन् १९९० ई० में बाबा ने तिब्बती उच्च शिक्षा संस्थान , सारनाथ वाराणसी में अपनी पढ़ाई पूरी की ।
बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी, महंथ क्रीं कुण्ड स्थल के विषय में बिस्तृत लौकिक जानकारी लेखक न पा सका, परन्तु एक बात उसके जेहन में बार बार बिजली की तरह कौंधती है, वह यह कि जिस प्रकार पुरातन काल में भगवान सदाशिव के शिष्य बाबा मत्स्येन्द्रनाथ जी ने अपने तपोबल से सिद्धों के सिद्ध बाबा गोरखनाथ जी को अयोनिज जन्म दिया था ठीक उसी प्रकार कहीं अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी के तपोबल के प्रतिरुप बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी भी तो नहीं हैं । सत्य चाहे जो हो, पर इस बात में तो बिल्कुल ही संशय नहीं है कि बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी जन्मना सिद्ध महापुरुष हैं । यहाँ आकर अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी की वाणी सत्य हो जाती है कि बारहवें महंथ के रुप में वे स्वयँ आयेंगे ।
बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी ने क्रीं कुण्ड स्थल में विकास के अनेक कार्य कराया है । स्थल की प्रसिद्धि और बढ़ी है । देश विदेश के श्रद्धालु जन बड़ी संख्या में स्थल आते हैं । स्थल में ” अघोराचार्य बाबा किनाराम अघोर शोध एवं सेवा संस्थान ” नाम से एक संस्था संचालित है, जो अघोर विषयक शोधकार्य में निरत है । इसके अलावा औघड़ी दवाओं के निर्माण के लिये एक निर्माणशाला भी बाबा ने स्थापित किया है ।
आज भी स्थल में दूर दूर से अघोर साधक आकर तपश्चर्या, साधना करते और सफल मनोरथ होते हैं । साधकों को बाबा का मार्गदर्शन हमेशा सुलभ है ।
5……अघोरेश्वर के साथ श्री उम्बर्तो
ई० सन् १९७७ का दिसम्बर माह में बनारस के एयर पोर्ट पर एक नवयुवक हवाई जहाज से उतरता है । रुप, रंग, नाक नक्श से नवयुवक सहज ही पहचाना जा रहा है कि वह युरोप के किसी देश का वासी है । नव युवक बाहर आकर टेक्सी लेता है और अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी द्वारा शिवाला मुहल्ले में स्थापित क्रीँकुण्ड आश्रम के लिये चल देता है । क्रीँकुण्ड आश्रम में महन्त बाबा राजेश्वर राम जी के अलावा बाबा आसू राम जी से उनकी भेंट होती है । महन्त जी अजगर वृत्ति के महात्मा हैं, वे अपने स्वभाव के अनुरुप महाराज कीनाराम जी के समय से चिताओं की अधजली लकड़ीयों से जलती चली आ रही अखण्ड धूनी के सामने दालान में पेट के बल हाथों पर ठूड्ढ़ी टिकाये शून्य में निर्निमेश दृष्टि से ताकते समाधि के आनन्द में मग्न हैं । बाबा आसू राम जी कुछ दूरी पर एक लकड़ी की कुर्सी पर एक पैर पर दूसरा पैर रखे, रीढ़ सीधा किये ध्यानमग्न बैठे हैं । उनकी आँखें बन्द हैं । पूरा आश्रम परिसर शान्त और निस्तब्ध है ।
क्रींकुण्ड आश्रम के महन्थ बाबा राजेश्वर राम पिछले कुछ दिनों से अस्वस्थ चल रहे हैं । उन्होने अपनी समाधि ले लेने की इच्छा से सभी को अवगत करा दिया है । अघोरेश्वर भगवान राम जी ने अपने सुयोग्य शिष्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी, जो अभी नौ वर्ष के बालक हैं, को क्रींकुण्ड का भावी महन्त प्रस्तावित किया है । महन्थ जी ने अघोरेश्वर के प्रस्ताव का अनुमोदन कर बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी को भावी महन्त घोषित भी कर दिया है । ऐसे समय में वह नवयुवक क्रींकुण्ड आश्रम पहुँच कर बाबा राजेश्वर राम जी का दर्शन करते है और महन्त जी को अपना परिचय देते हैं । उनका नाम उम्बर्तो बिफ्फी है और वे इटली से आ रहे हैं । श्री उम्बर्तो महन्त जी को अपने आने के उद्देश्य से भी अवगत कराते हैं । भाषा उन्हें स्वयँ को अपेक्षित रुप से अभिव्यक्त करने में कठिनाई उपस्थित करती है, परन्तु जिनके लिये आगत विगत जानना खेल हो, उम्बर्तो जी की आँतरिक स्थिति को सहज ही जान लेते हैं । महन्थ जी श्री उम्बर्तो को आश्रम में आश्रय प्रदान कर देते हैं । श्री उम्बर्तो कुछ ही काल में आस्वस्त हो जाते हैं कि अपने उद्देश्य के अनुरुप वे सही
जगह पहुँच गये हैं ।
कुछ दिनों के उपराँत अघोरेश्वर भगवान राम जी का क्रीँ कुण्ड आश्रम में आगमन होता है और श्री उम्बर्तो अपने गुरु का प्रथम दर्शन लाभ करते हैं ।
ई० सन् १९७८ के फरवरी माह के दस तारीख को बाबा राजेश्वर राम जी का शिवलोक गमन होता है, और बालक महन्थ बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी का महन्थ के रुप में अभिषेक होता है । श्री उम्बर्तो जी इन घटनाओं के समय उपस्थित रहते हैं । उसी वर्ष उनका दीक्षा संस्कार भी सम्पन्न होता है । वे ई० सन् १९७९ के शुरु में वापस इटली लौट जाते हैं |
ई० सन् १९८५ में गुरु पूर्णिमा के अवसर पर श्री उम्बर्तो जी का पुनः भारत आगमन होता है । वे पड़ाव स्थित औघड़ भगवान राम कुष्ठ सेवा आश्रम में अघोरेश्वर के सानिध्य में एक लम्बा समय बिताते हैं । इसी वर्ष उनका मुड़िया साधु के रुप में सन्यास दीक्षा सम्पन्न होता है और उन्हें नाम मिलता है ” अघोर गुरुबाबा” ।

अघोरेश्वर अपने भ्रमण के क्रम में ई० सन् १९८८ में अघोर गुरुबाबा के आग्रह पर इटली की यात्रा करते हैं । इटली के शिष्यों और श्रद्धालुओं द्वारा अघोरेश्वर के इसी प्रवास के समय श्री सर्वेश्वरी समूह की इटली शाखा का गठन किया जाता है । इटली में एक अघोर आश्रम की स्थापना भी होती है । ई० सन् १९८९ से समूह की यह शाखा गुरुपूर्णिमा के अवसर पर समूह के मुख्यालय पड़ाव आश्रम को अपना वार्षिक प्रतिवेदन देना शुरु करती है ।
श्री सर्वेश्वरी समूह की इटली शाखा एवँ अघोरेश्वर द्वारा स्थापित आश्रम आज उन्नति के पथ पर लगातार आगे बढ़ रहा है ।
जीवन दर्शन
सन् १९८२ ई० में श्री सर्वेश्वरी निवास, पड़ाव , वाराणसी के प्रागण में अपने प्रिय शिष्य बाबा प्रियदर्शी राम को सम्बोधित कर अघोरेश्वर भगवान राम जी की वाणी निनादित हुई थी । यह वाणी अघोर पथ के पथिक, साधु , तथा मानव मात्र की कँचन काया में प्रतिष्ठित प्राण रुपी परम आराध्य के दर्शन के लिये निमित्त रुप है ।” प्राणी की वेशभूषा और कठोर तप इसी बात का परिचायक और संकेत है कि समाज उसे सम्मान प्रतिष्ठा दे, समाज द्वारा वह अच्छा कहा जाय । मैं समझता हूँ कि ” हम प्राणमय परमेश्वर के भक्त हैं, उनके सन्निकट हैं । ” ऐसा कहलाने में ही मनुष्य ने अपना गौरव मान रखा है । बदन में खाक लपेटे, मूँज का दण्ड धारण किये, चट या बोरा की लँगोटी लगाये, तरुण तापस क्या प्राण का अनुसंधान कर रहा है ? क्या वह ईश्वर की खोज या आत्मा की पहचान में संलग्न है ? नहीं , वह सम्मान, आदर के ढ़ूँढ़ने में लगा हुआ है, प्रतिष्ठा, मान और बड़ाई ही उसके लक्ष्य हैं । यही तो दुष्प्रज्ञता है । अरे ! वह अक्खड़ कह रहा थाः
” मान, बड़ाई, स्तुति और कुत्ते का लिंग पैठत पैठत पैठ जाय, निकसत फाटत गण्ड” ।जिसने मान, बड़ाई और स्तुति को तिलाँजलि दे रखी है, उसे खाक लपेटने, अपने को तपाने या समाज से सम्मान की अपेक्षा की आवश्यकता नहीं होती । वह तो जाति और कुल के लक्षणों, यहाँ तक कि प्रान्तीयता, राष्ट्रीयता और भाषा की सीमाओं, बन्धनों, संकीर्णताओं, विशिष्टताओं से भी अपने को विमुक्त रखता है । इस विमुक्ति से कतराने, इन सीमाओं, बन्धनों में अपने को बाँध रखने की वक्र भंगिमा के कारण ही मानव कँचन रुपी काया में प्रतिष्ठित प्राण रुपी परम आराध्य देव के दर्शन से वंचित है । यह कंचन काया किसी अन्य को ढ़ूँढ़ने के लिये नहीं है । जो इस प्रकार ढ़ूँढ़ता, खोजता जान पड़ता है, दीख पड़ता है, वह दूसरे को ही ढ़ूँढ़ता फिर रहा है और उसे अपना कोई अता पता नहीं है, कोई निशानी नहीं है । उसे तू समझ जो प्राणों में प्रणिपात करता है । उसके हर रोम से प्रणव का स्फूरण होता है । उसके शरीर से विमल छाया और शीतलता प्रस्फुटित होती है । उसमें न कुछ उत्पन्न होता है, न विलीन होता है ।
दर्शी ! तू साधक को बतला दे कि वह निर्मल, स्वच्छ, द्वन्द्वातीत चित्त की ओर उन्मुख होना चाहता है, तो यह संभव है । किन्तु जब तक वह मान, बड़ाई और स्तुति की तृष्णा का तिरस्कार नहीं करेगा, इस पुण्य के उदय की कोई आशा और सम्भावना नहीं है । हो सकता है कि किस शास्त्र ने क्या कहा है, किस ॠषि ने क्या कहा है, इसका परित्याग कर देने पर वह अपने आप में जो घटित हो रहा है उसे जान जाय । हाँ, तृष्णा का त्याग नहीं करने पर इसकी संभावना और आशंका अवश्य है कि उसे तृष्णा और तितिक्षा छूती रहेगी, उसकी अशुद्धता बनी रहेगी, वह शुद्धता से वंचित रहेगा और पाप मिश्रित पुण्य की मिलावट के सरीखे दीखेगा , जो उसको तो अतृप्त रखेगा ही, दूसरों के लिये भी अतृप्ति का कारण बनेगा । वैसी स्थिति में शीतल स्वास उष्ण स्वास में भी बदल सकती है जो उसको तो जलायेगी ही, दूसरों को भी जला सकती है ।
6…कर्म
सुधर्मा ! मैं देखता हूँ निष्क्रिय जीवन जीने वाले कुकृत काया हो जाते हैं । बूढ़ा रोता है । मान लो कि उसकी सभी इन्द्रियाँ थिर हो गई हैं, मस्तिष्क उसका भड़क उठा है । बच्चा रोता है । तुम मान लो कि उसकी अज्ञानता है, उसको कुछ भी शुभ अशुभ का ज्ञान नहीं है । जब नौजवान को रोते देखता हूँ तो आश्चर्य होता है । तरुण, क्लेश कहकर, असफलता कहकर सर धुनता है । जीवन से निराश होने का क्या कारण है ? एक तरुण में निष्क्रियता, कलुषित काया जब मैं देखता हूँ सुधर्मा, आश्चर्य होता है । क्योंकि वही क्षण और समय उसके जीवन की सार्थकता की तरफ प्रेरक होना चाहिये और उसमें मुदिता होनी चाहिये । ऐसा मैं नहीं देखता हूँ, सुधर्मा । इसका कारण निष्क्रियता, कुकृत काया है ।
जो तरुण क्रियाशील है, शुद्ध काया वाला है, उसके जीवन में उमंग, आल्हाद और हर तरह के कार्यों की क्षमता, कुशलता, गौरव के साथ, सम्मान के साथ, उत्साह के साथ देखता हूँ सुधर्मा । निष्क्रियता के पात्र को क्लेश के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं आता । क्रियाशील को मिलता है उत्साह, उमंग और वह वेग जो हर कार्य को सुगम और सहज बना देता है । ऐसा ही मैं देखता हूँ, सुधर्मा । यह आश्चर्य है ! आश्चर्य है ।
सुधर्मा ! प्रयत्न के बगैर पुरुषार्थ रुपी दिब्य गुण नहीं प्राप्त होता । प्रयत्न करने वाला मनुष्य अपने को अँधकार में नहीं रखता है, प्रकाश की तरफ ले जाता है । चाहे जैसी परिस्थिति भी उपस्थित हो जाय, शरीर भी सुखाना पड़े तो शरीर सुखाता है । अपने को लोलुपता से छुड़ाना पड़े तो लोलुपता से छुड़ाता है । मन को मारता है तो तन को वश में करता है । सुधर्मा ! वही पुरुष , पुरुषार्थी कहा जाता है । पुरुषार्थ ही मनुष्य का जीवन है, मोक्ष का मार्ग है, अर्थ का मार्ग है, धर्म का मार्ग है । 7…प्राण
अघोरेश्वर भगवान राम जी के जीवन की विराटता, रहस्यमयता, माधुर्य और सरलता अपने आप में अन्यतम रहा है । जो व्यक्ति उनके सम्पर्क में आये हैं वे उन्हें अपना पाये हैं । प्रत्येक शिष्य, भक्त, श्रद्धालु अपने आप को उनकी अहैतुकी कृपा का एकमात्र अधिकारी समझता रहा है । वे एक ही समय में गुरु , माँ, सुहृद, अन्तरतम में बैठा ईष्ट, आदि अनेक रुप व गुण में देखे सुने जाते रहे हैं । उन्होने कहा है ” गुरु देह नहीं हैं, प्राण हैं ।”
प्राण के विषय में उनकी कतिपय वाणियों का संग्रह यहाँ प्रस्तुत है ।
” पिण्ड में प्राण ही तो प्राणियों का चैतन्य है । ब्रह्माण्ड में उसे वायु कहा जाता है । प्राण वायु ही हमारा उपास्य है । अपने आप की पूजा ही हमारी उपासना है ।
” एक ही प्राण ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र सभी में समान रुप से प्रतिबिम्बित है । ….. पाँव रुपी शूद्रों में बसे प्राण की अवहेलना कर, प्रतारणा कर, अपमान कर हम अपना सर्वनाश करने पर तुले हैं ।”
” चारों प्रकार के भोज्य पदार्थ चर्व्य, चोष्य,लेह्य, और भक्ष्य प्राण रक्षा के निमित्त ही होते हैं । उसके बिना हम लोगों का यह जो ईश्वर है ( ईश्वर ) यह स्वर बन्द हो जायेगा । जब ” स्वर” बन्द हो जायेगा तो यह सृष्टि हमारी दृष्टि से ओझल हो जायेगी । इस नश्वरता से तो सभी लोग परिचित हैं ।”
जठराग्नि जो प्राणियों में प्राण संजोये हुए है, वह प्रज्वलित रहती है । उसमें ही आहुति देना प्राण को समिधा, स्नेह, शालीनता, शील देने सरीखे है । उसमें आहुति देना महावैश्वानर की पूजा है । जिसने प्राण को श्रद्धा समिधा नहीं अर्पित की है, प्राण की उपेक्षा कर रखी है, वह अनेक रोगों से, उदर विकार से निश्चेष्ट पड़ा रहता है । वह जठराग्नि को आहुति नहीं दे पायेगा । जन समाज उसे रोगी कहकर सम्बोधित करता है और उसके बारे में कहता हैः ” इन्हें खाने पीने में अरुचि हो गई है । बाबा ! इन्हें कुछ पच नहीं रहा है । बाबा ! इन्हें मिचली आती है” । कारण कोई विशेष महत्व नहीं रखता । सिर्फ इतना ही महत्व का है कि उस व्यक्ति ने प्राण को संजोया नहीं । पिण्ड में प्राण ही तो प्राणियों का चैतन्य है । ब्रम्हाण्ड में उसे वायु कहा जाता है । वायु के शुष्क हो जाने पर कितना क्लेश होता है, कितनी असह्य वेदना होती है ? अरे बाबा ! जिसने प्राण को संजोया है, उसी ने, सम्यक रुप से, चिरस्थायी जीवन को जाना है, जीवत्व को पहचाना है । वह इस सूक्ति को चरितार्थ करता है, ” धन धरती का एक ही लेखा, जस बाहर तस भीतर देखा ” ।
प्राण की उपासना सहज है , सुगम है, कठोर नहीं है । हाँ एक बात अवश्य है जो अपने अभ्यंतर में आसक्तियों को छिपाये, संजोये बैठा है उससे तो प्राण बहुत ही दूर है, बहुत ही अपरिचित है । इन आसक्तियों ने मित्र बनकर उस व्यक्ति के अभ्यंतर को कूड़ा कर्कट बना रखा है ।
गुरु देह नहीं हैं प्राण हैं । जबतक तुम्हारा प्राण रहेगा वे तुम्हारे अभ्यंतर में विराजमान रहेंगे ।
दर्शी ! एक बात तुम जान जाओ कि जागृति और सुषुप्तावस्था की उत्कँठा से मुक्त होकर, प्राण जहाँ है वहीं उसे अपने आप में रोक कर रखने का अभ्यास करने से , पिण्ड के भीतर एक नया आविष्कार साकार हो उठता है, जो सत्य है, जो प्रत्यक्ष है । उस मनोदशा में किसी ओर से कोई भी आक्रमण बिल्कुल ही कष्टदायक नहीं प्रतीत होता और उससे किसी प्रकार की उद्विग्नता या उत्तेजना उत्पन्न नहीं होती । इस अवस्था को ” उन्मनी ” कहते हैं । जब साधक को अनुभूति होती है कि वह न सोया है, न जगा है, न चेतन है, न तो “है” और न ” नहीं है” का ही कोई आभास प्रतिबिम्बित होता है । उस समय वह प्राण के साथ आलिंगन में अपने ही प्राण में उन्मुदित हो जाता है । शास्त्रों में इस अवस्था को उन्मनी कहा है ।
8……सत्य
एक बार अघोरेश्वर भगवान राम जी ने अपने प्रिय शिष्य बाबा प्रियदर्शी राम जी के समक्ष सत्य की निम्नंकित व्याख्या की थी ।
” दर्शी ! जिसे प्रायः सत्य कहा जाता है, वह वस्तुस्थिति का कण मात्र है । लोग सत्य को जानते हैं , समझते नहीं । इसलिये बहुधा सत्य कड़ुआ तो लगता ही है । वह भ्रम भी उत्पन्न कर सकता है, जिसके फलस्वरुप बड़े बड़े दिग्गज और चोटी के विद्वान भी दिगभ्रमित हो जाते हैं , पथभ्रष्ट हो जाते हैं । जन सामान्य के लिये यह सामान्य बात है । कहीं कहीं पर सत्य, असत्य सा जीवन जीने को प्रेरित करने लगता है । इसमें आश्चर्य नहीं है ।
दर्शी ! सत्य सर्वत्र, सब देश में , और सब काल में एक सा नहीं होता है । माता पुत्र ही के लिये मिष्ठान्न छिपाकर डिब्बे में बन्द कर रखती है, किन्तु अधिक मिष्ठान्न खाने से अस्वस्थ हो जाने की संभावना से, वह उस बच्चे के समक्ष, प्रचलित सत्य के बदले यह असत्य बोलती है कि अब मिष्ठान्न समाप्त हो गया है । यदि माता सत्य बोल देती तो पुत्र अस्वस्थ हो जाता । इस लिये सर्वत्र समान सत्य, सत्य नहीं होता । 9…शक्ति
“जब से सृष्टि की रचना हुई, उसी समय से शक्ति की प्रधानता चली आ रही है और तब से ही सारा समाज शक्ति की ही आराधना करता रहा है । शक्ति का अर्थ है कार्य करने की क्षमता । जीवन में यदि शक्ति शब्द की व्याख्या की जाय तो यह स्वतः सिद्ध है कि शक्तिहीन मानव ही मृत्यु की सँज्ञा पाता है । वह किसी भी कार्य को करने में समर्थ नहीं हो सकता । अस्तु प्रत्येक प्राणी के लिये शक्ति संचय का अभ्यास डालना आवश्यक है । आज के समाज में इसका नितान्त अभाव है जिसके कारण लोग आत्मबल और विवेक शून्य सा हो गये हैं । शक्ति मनुष्य के जीवन की आधारभूत जननी है और इसी के द्वारा संसार में उसकी उत्पत्ति भी होती है । शक्ति की ही कृपा पर संसार में जीवनयापन एवँ उसके लिये आवश्यक साधन स्रोतों का संकलन भी होता है । तात्पर्य यह है कि आदि स्वरुप शिव भी शक्ति में ही निहित हैं । शक्ति के अभाव में, शिव भी शून्य सदृश हैं और अन्तिम रुप उसे शव का दिया जाता है ।
गायत्री जाप, पृथ्वी लीपकर पूजा करना आदि शक्ति उपासना ही है । धनी व्यक्तियों के मंदिरों एवँ विग्रहों में वह आभा एवँ प्रेरणा या गु्दगुदी नहीं मिलती । शक्ति उपासना आदि उपासना है । पहले केवल शक्ति की ही उपासना होती थी । आपसी मतभेदों ने अनेक देवताओं को जन्म दिया । कुजात काढ़ने पर देवता बंट जाते हैं । बैकुण्ट और कैलाश की कल्पना बाद में हुई । पहले मणिद्वीप की ही कल्पना थी । बाद में मुसलमानों के मुकाबला में वैष्णव आँदोलन चला । ” ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः ” का नारा लगा । अवतार वाद भी बाद में आया । श्री रामानंद जी इलाहाबाद के ब्राह्मण थे । उन्होंने वैष्णवी दीक्षा लेकर भी हिन्दूत्व को बचाया । उन्होने अपने मत में समन्वय किया । उन्होंने यह व्यवस्था दी कि कंठी धारण करने वाला व्यक्ति चमार भी हो तो पंक्ति में बैठकर एक साथ खा सकता है । रविदास, नाभा, कूवा आदि जैसे महात्मा उनके पन्थ में हुए । चूँकि मुसलमान मँदिर तोड़ते थे, उन्होने उपासना पद्धति की सुरक्षा के लिये शालिग्राम की उपासना प्रारँभ कराई । उनके भक्त उद्यमी हैं । धार्मिक सेनाओं का लाभ राजाओं ने उठाया । वैष्णव, नागा सेनाओं ने मुसलमानों को लूटा । उसी से मठों का निर्माण हुआ । निद्रा देवी बिष्णु को सुलाती हैं । ब्रह्मा की स्तुति पर वे जगे, मधु कैटभ को मारे । इनसे उस परमेश्वर को आप जानेंगे । निजी प्राण को जगाओ । सद् बुद्धि एवँ गुणों से भी अनुभूति होगी ।
चराचर में सभी प्राणी शक्ति के प्रतीक हैं और सभी शक्ति के बिना शवतुल्य हैं । किसी भी देवी देवता के पूजन में आस्थापूर्वक विश्वास करने का ही फल प्राप्त होता है । विश्वास के वगैर कोई भी सजीव धारणा उत्पन्न ही नहीं हो सकती । शक्ति का आदिरुप सर्वेश्वरी है, जिनकी कृपा से सभी कुछ सुलभ है । अतः आज के मानव के लिये यह आवश्यक है कि अपने में आत्मबल उत्पन्न करे और भौतिक चमत्कारों के बाह्याडम्बर से अपने को परे रखकर सादा जीवन और उच्च विचार का अभ्यास डाले । इसका परिणाम यह होगा कि आज का अधोगति प्राप्त मानव पुनः नई ज्योति प्राप्त करेगा जिससे उसके अज्ञान और अन्धकार का विनाश होकर एक नये युग का निर्माण होगा ।
मातृत्व की उपासना भारत माता की उपासना तो है ही, वन्देमातरम् माँ की उपासना का महामन्त्र है । इसी मन्त्र से प्ररित होकर हमारे लोगों ने मातृत्व उपासना का जाप करके उसे हृदय, वाणी और कर्मों में जागृत किया तथा पवित्रता और शक्ति उपलब्ध की । उन्होने स्वराज्य के लिये संघर्ष किया । फलस्वरुप विदेशी भागे । अपना राज स्थापित हुआ । तमाम निर्माण कार्य हुए । लोगों को धर्म, विचार और क्रिया की स्वतंत्रता मिली । इतिहास बना । उसमें बन्देमातरम् का एक अध्याय जुड़ा । हमारा इतिहास मातृत्व उपासना की ऐसी कितनी ही प्रेरणाओं से भरा है । लोगों को उससे प्रेरणा मिलती है ।
मानव प्रकृति पर कुछ विजय पाने के कारण अहं भाव में अपने को समर्थ और शक्तिमान समझने लगा है । समर्थ होने के वास्तविक कारण पर कभी भी विचार करने का उसके पास समय ही नहीं रह गया है । वह अपने कार्यकलाप और गतिविधियों में शक्ति की उपेक्षा कर रहा है । यही कारण है कि दीर्घायु होने की बात स्वप्नवत दीखने लगी है । लोग अल्पायु होते जा रहे हैं । पूर्व की अपेक्षा शरीर का गठन जर्जर होता जा रहा है । मनुष्य असुर प्रवृत्ति का पोषक हो गया है । दानवता की लहर सजीव है । घृणा, द्वेष, अनाचार और अत्याचार आज सदगुण माने जाने लगे हैं । इन सभी बुराइयों का एकमात्र कारण शक्ति का ह्रास होना है । यदि समाज ने शक्ति का संतुलन न खोया होता तो आज की विकट समस्याएँ कभी भी उत्पन्न न होतीं । इनके निराकरण के निमित्त प्रत्येक मानव का कर्तव्य है कि वह शक्तिपूजन के साथ साथ शक्तिसंचय का भी अभ्यास डाले । तभी कल्याण होगा ।”
9…भगवत् कृपा प्राणीमात्र के कल्याण के निमित्त सन्त, महात्मा, अवधूत, अघोरेश्वर, ॠषि, महर्षि, की वाणी के रुप में प्रकाशित होती रही है । आज भी हो रही है । भविष्य में भी होती रहेगी ।
यहाँ पर स्वनाम स्वरुप, योगीराज, करुणामय, परम पूज्य अघोरेश्वर भगवान राम जी के श्रीमुख से प्रवाहित कतिपय वाणी का सँकलन प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है । इन वाणियों का अध्ययन, तद् नुसार आचरण, मानव मात्र के लिये कल्याणकारी हो, यही अघोरेश्वर से विनम्र निवेदन है ।
शाँति” मन रुपी शिला पर पद्मासन लगाइये और चित्त को एकाग्र कर आत्माराम को प्राप्त कीजिये । जिस प्रकार कापालिक वेशधारी भगवान शाँत रहते हैं, उसी प्रकार सब लोग इन्द्रियों की लोलुपता को त्यागकर शाँत हों । जिस प्रकार आकाश के उड़ते हुए पक्षी वृक्ष देख लेने पर उस पर जा बैठते हैं और विश्राम पाते हैं , उसी प्रकार सब लोग पावें । जिस प्रकार जीव मन, वाणी और शरीर से अलग होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और जगत अशान्ति से शान्ति को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार सब लोग शान्ति को प्राप्त होवें । यह प्रपञ्च रुप दृष्य मृगतृष्णा की तरह भासता है । उसको त्यागकर अभिलषित चित्त में जाकर सब लोग शाँत हों । अमावस्या तिथि को जैसे समुद्र शाँत रहता है उसी की तरह हम लोग शाँत हों । जिस तरह हिमालय शाँत है, जैसे साधु लोग अपनी इन्द्रियों का दमन कर शाँत होते हैं, जैसे अवधूत लोग मान और अपमान से अलग होकर शाँत होते हैं, जैसे ब्रह्मनिष्ठ लोग प्राणीमात्र में अपनी आत्मा को देखकर शाँत होते हैं, उसी प्रकार हम लोग शाँत हों । जैसे निर्विकल्प आत्मा का साक्षात्कार हो जाने पर मन भुने बीज के समान परिकल्पित होता है, उसी प्रकार हम लोग भी परिकल्पित हों । ”
एक अन्य अवसर पर अघोरेश्वर जी ने कहाः
” इन्द्रियों का समुदाय है । उनकी अपनी खुराक है । इनको बाँधकर नहीं रख सकते । इनका स्वभाव है विषयों की ओर दौड़ना । केवल सँयम रखें । इच्छाओं को अवरुद्ध कर हम आस्तिकता की गठरी नहीं प्राप्त कर सकते । हमें विषयों के प्रति आकर्षण की प्रवृत्ति को मारना चाहिये । सहस्त्रों वृक्षों को काटकर व्यक्ति छाया नहीं पा सकता, शाँति नहीं पा सकता । आप अपने को तपायेंगे तो शाँति मिलेगी । हालांकि आपको यह पता नहीं चलेगा । ठीक उसीतरह से जिस तरह से सेन्ट के दुकानदार को सेन्ट की गन्ध नहीं मालूम होती, किन्तु उसी गन्ध को अनुभव कर दूसरे लोग उससे सेन्ट खरीदकर ले जाते हैं ।उसी तरह आपकी तपस्या, आनन्द, गौरव को दूसरे ही देख सकेंगे ।
9……सन् १९८२ ई० में अर्ध कुम्भ पड़ा था । प्रयाग में त्रिवेणी स्थल पर अघोरेश्वर का केम्प लगा हुआ था । केम्प में अघोरेश्वर विराजमान थे । पूरे क्षेत्र में साधूओं का मेला सा लगा हुआ था । सभी सम्प्रदाय, अखाड़ा, मठ, आश्रम, आदि से साधुजन तथा धर्मप्रेमी, तीर्थवास के अभिलाषी श्रद्धालुजन पुण्यसलिला गँगा के तट पर बालुका पर छोलदारियों में निवास कर रहे थे । ध्यान, धारणा, प्रवचन, आशीर्वचन की अविरल धारा निरन्तर प्रवहमान हो रही थी । इस धारा में जिसकी जैसी मति, गति थी अवगाहन कर अपनी तृप्ति हेतु प्रयास रत था ।
एक दिन केम्प में प्रातःकालीन नित्यकर्म की चहल पहल शान्त हो चुकी थी । जगह जगह रात में जलाये गये अलाव शाँत हो चुके थे । कुछ साधुओं | मठाधीशों के स्थान पर प्रवचन सुनने के लिये श्रद्धालुओं का जुटना शुरु हो चुका था । लगभग सभी जगह भोग राँधने की तैयारी होने लगी थी । रविनारायण थोड़ा ऊपर चढ़ चुके थे । ऐसे समय एक किशोर अपना सँक्षिप्त सा सामान उठाये श्री सर्वेश्वरी समूह वाली छोलदारी में प्रवेश करते हैं । किशोर का उच्च ललाट, चौड़ा सीना, लम्बी और बलिष्ट भुजाएँ और ओज पूर्ण चेहरा देखकर सहज ही ठह अनुमान लगाया जा सकता है यह किसी सम्पन्न और सुसँस्कृत परिवार के लाल हैं ।
अघोरेश्वर के निकट पहुँचकर किशोर उनके चरण कमल में अपना माथा रखकर प्रणाम निवेदित करते हैं और अघोरेश्वर का इशारा पाकर चरणों के निकट ही बैठ जाते हैं ।
ये किशोर हैं महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी, नरसिँहगढ़, मध्यप्रदेश । यह आना कुमार का अँतिम आना था क्योंकि उसके बाद जाना नहीं हुआ । वे अघोरेश्वर के साथ अर्धकुम्भ की समाप्ति तक प्रयाग में मेला स्थल पर ही रहे । उसके बाद उनके साथ बनारस चले आये ।
अघोरेश्वर ने महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी को मुड़िया दीक्षा सँस्कार के बाद नाम दिया गुरुपद सँभव राम ।
जन्मः
आपका जन्म दिनाँक १५ मार्च १९६१ को मध्यप्रदेश के इँदौर शहर में हुआ था । आपका बाल्यकाल नरसिंह गढ़ के भानूनिवास पैलेश में बीता । आपके जन्म तक राजपरिवार नरसिंहगढ़ के किले में रहता था । सन् १९६२ ई० में भानूनिवास पैलेश बनकर तैयार हुआ और राजवँश इस नये पैलेश में रहने आ गया । भारतवर्ष के राजवँशों में शायद यह अकेला राजवँश है जो आजादी के बाद तक अपने किले में रहता था ।
कुल परम्परा
आपकी कुल परम्परा परमार कुल का क्षत्रीय राजवँश है । यह परमार राजवँश वही है जिसमें उज्जयिनी के महाप्रतापी, धर्मपरायण, न्यायकुशल एवँ अक्षुण्ण कीर्ति के स्वामी सम्राट विक्रमादित्य हो चुके हैं । विक्रम सँवत् सम्राट विक्रमादित्य ने ही चलाया था । आपकी बेताल कथाएँ जगत प्रसिद्ध हैं तथा सभी आयु वर्ग के पुरुष और नारियों को आज भी आकर्षित करती हैं ।
सम्राट विक्रमादित्य के पश्चात इसी परमार वँश में एक सम्राट हुए महामहिम भर्तृहरि । आपका हृदय परिवर्तन हो गया और आप राजपाट त्यागकर सन्यस्त हो गये । आप जिस गुफा में रहकर साधना करते थे वह आज भी विद्यमान है तथा देश विदेश के पर्यटक यहाँ आते रहते हैं । सम्राट भर्तृहरि जी की प्रसिद्धि साधु भरथरी के रुप में अक्षुण्ण बनी हुई है । आपके द्वारा रचित नीति शतक, श्रृँगार शतक, वैराग्य शतक साहित्यिक निधि मानी जाती हैं । आपकी स्तुतियाँ, प्रार्थनायेँ, गीत आदि आज भी देश के कोने कोने में गाये जाते हैं । इस गायन का नाम ही भरथरी पड़ गया है ।
इसी परमार राजवँश में तीसरे महा प्रतापी, न्याय प्रिय, प्रजा वत्सल, सम्राट भोज हुए ।
परमार राजवँश मगध, अवँतिका, उत्तराखण्ड, राजस्थान, सिन्ध, तथा नेपाल में शासन करते थे । प्रसिद्धी है कि ” परमार यानि पृथ्वी, पृथ्वी यानी परमार । ” ये पृथ्वी पति कहलाते थे तथा समय समय पर सप्त खण्ड पृथ्वी पर राज करते रहे हैं । पिता महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह (अवधूत गुरुपद सँभव राम जी ) के पिता परमार कुलभूषण नरसिंहगढ़ के महाराजा श्रीमन्त भानूप्रकाश सिंह जी हैं । महाराजा साहब की शिक्षा दीक्षा डॉली कालेज, इन्दौर तथा मेयो कालेज, अजमेर में हुई थी । आप अपनी जवानी के दिनों में शिकार करने के शौकीन रहे हैं, तथा बड़े अच्छे शिकारी भी हैं । आपका विवाह सन् १९५० ई० को बिकानेर के प्रसिद्ध शासक हि. हा. सर गँगा सिंह जी की पौत्री और महाराज कुमार बिजल सिंह जी की पुत्री लक्ष्मी कुमारी के साथ हुआ था । आपका राज्याभिषेक १७ जुलाई १९५७ ई० को नरसिंहगढ़ के किले में स्थित पैलेश में सम्पन्न हुआ था । आपने किले से बाहर शहर में झील के किनारे नया महल “भानू निवास” बनवाया और सन् १९६२ ई० में सपरिवार किला छोड़कर रहने चले गये ।
महाराजा भानूप्रकाश सिंह जी सन् १९६२ ई० में देश की राजनीति में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज कराई । सन् १९६७ ई० में आपके ज्ञान और योग्यता को परखकर आपको केन्द्र में राज्यमँत्री बनाया गया । स्वतँत्र विचारों और त्वरित निर्णय शक्ति के कारण आप ज्यादा समय तक सक्रिय राजनीति में नहीं रह सके । पार्टी तथा देश के प्रति आपके अवदानों को मान्यता देते हुए आपको गोवा का राज्यपाल बनाया गया । आप राज्यपाल के रुप में गोवा में १८.०३.१९९१ से लेकर ०४.०४.१९९४ तक रहे । यह वही समय था जब कोंकण रेलवे की नीँव पड़ रही थी । कोंकण रेल के निर्माण में आपका योगदान अतुलनीय है । गोवा के तत्कालीन मुख्यमँत्री तथा ईसाइ धर्मगुरु कोकण रेलवे नहीं बनने देना चाहते थे । ये दोनो मुखर विरोधी थे । राज्यपाल के रुप में आपके लिये यह एक बड़ी चुनौती थी । ईसाइ धर्म गुरु को तो आपने राजभवन बुलवाकर कोंकण के प्रकरण से दूर रहने की चेतावनी देकर शाँत कर दिया, परन्तु मुख्यमँत्री समझाइस नहीं मान रहे थे । अँततः आपने राज्यपाल के सँवैधानिक अधिकारों का उपयोग करते हुए मुख्यमँत्री एवँ उनके मँत्री मँडल को बर्खास्त कर दिया । ऐसा साहसपूर्ण कार्य महाराजा साहब जैसे शासक से ही सँभव था ।
माता महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह (अवधूत गुरुपद सँभव राम जी ) की माता का नाम महारानी लक्ष्मी कुमारी साहिबा है । आप बीकानेर के महाराज कुमार बिजल सिँह जी की पुत्री हंम । आप धर्म परायण एवँ विदुषी महिला हैं । आपकी अघोरेश्वर पर अपार श्रद्धा एवँ भक्ति है । महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह को बालपन में माता द्वारा दिये गये उच्च सँस्कारों का भी उनके सन्यस्त होने में पर्याप्त योगदान रहा है ।
महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह अपने माता पिता के सबसे छोटे सुपुत्र हैं । महाराजा भानूप्रकाश सिंह जी और महारानी लक्ष्मी कुमारी साहिबा जी के पाँच पुत्र हुए ।
१, महाराज कुमार शिलादित्य सिंह, १९५१
२, महाराज कुमार राज्यवर्धन सिंह, १९५३
३, महाराज कुमार गिरिरत्न सिंह, १९५५
४, महाराज कुमार भाग्यादित्य सिंह, १९५७
५, महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह, १९५९
महारानी लक्ष्मी कुमारी साहिबा जी का मायका बीकानेर है और अघोरेश्वर के सखा, भक्त जशपुर के महाराजा बिजयभुषण सिंह देव जी की धर्मपत्नि महारानी जयाकुमारी साहिबा जी का मायका भी बीकानेर है । इसके अलावा महाराज कुमार राज्यवर्धन सिंह जी का विवाह जशपुर के महाराजा बिजयभुषण सिंह देव जी की सुपुत्री राजकुमारी कल्पनेश्वरि देवी जी के सा् हुआ है । यह दोनों राज परिवार इस प्रकार से अति निकट के सम्बंधी होते हैं । यह निकट सम्बन्ध निश्चय ही महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी को अघोरेश्वर के निकट पहुँचाने में किसी न किसी रुप में सहयोगी रहा है ।… महारानी लक्ष्मी कुमारी साहिबा जी का मायका बीकानेर है और अघोरेश्वर के सखा, भक्त जशपुर के महाराजा बिजयभुषण सिंह देव जी की धर्मपत्नि महारानी जयाकुमारी साहिबा जी का मायका भी बीकानेर है । इसके अलावा महाराज कुमार राज्यवर्धन सिंह जी का विवाह जशपुर के महाराजा बिजयभुषण सिंह देव जी की सुपुत्री राजकुमारी कल्पनेश्वरि देवी जी के सा् हुआ है । यह दोनों राज परिवार इस प्रकार से अति निकट के सम्बंधी होते हैं । यह निकट सम्बन्ध निश्चय ही महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी को अघोरेश्वर के निकट पहुँचाने में किसी न किसी रुप में सहयोगी रहा है ।
शिक्षा
महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह (अवधूत गुरुपद सँभव राम जी ) की शिक्षा का प्रबन्ध महाराजा साहब ने राजकुमारों के लिये बने डॉली कालेज, इन्दौर में किया तथा स्नातकोत्तर शिक्षा के लिये देश की राजधानी दिल्ली भेजा । सन् १९८२ ई० में आप दिल्ली से ही प्रयाग आये थे ।
मुड़िया दीक्षा या सन्यास दीक्षा
महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी को सन् १९८२ ई० में अघोरेश्वर भगवान राम जी द्वारा सन्यास दीक्षा प्रदान किया गया । दीक्षा के उपराँत आपको नाम दिया गया गुरुपद सँभव राम । आप सन्यास क्रम में अवधूत सिंह शावक राम जी, अवधूत प्रियदर्शी राम जी के पश्चात तीसरे मुड़िया साधु हुए ।
सन्यस्त होने के पश्चात आपकी कठोर तप और साधना शुरु हुई जो बरसों चलती रही । अघोरेश्वर साधना की गूढ़ प्रक्रियाओं, जीवनादर्शों , तथा सामाजिक आदर्शों के विषय में अपने शिष्यों, भक्तों को शिक्षा देते समय प्रायः आपको और अवधूत प्रियदर्शी राम जी को सम्बोधित करते रहे हैं । इस क्रम में अघोरेश्वर आपको कभी सँभव, कभी सँभव साधक, कभी सौगत उपासक, कभी मुड़िया साधु आदि विभिन्न नामों से सम्बोधित करते रहे हैं । इससे ज्ञात होता है कि आप अघोरेश्वर के प्रिय शिष्य रहे हैं । उनकी अपरिमित कृपा दृष्टि प्राप्त होने के कारण निश्चय ही आप आध्यात्मिक उँचाईयों पर आरुढ़ होने में सक्षम रहे हैं । सन् १९८२ ई० से सन् १९९२ ई० तक अघोरेश्वर के श्री चरणों में सतत निरत रहकर अघोर दर्शन, परम्परा एवँ दृष्टि से आपने ज्ञान के भँडार को परिपूरित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है ।
आप अवधूत पद पर प्रतिष्ठित हैं ।
आप वर्तमान में श्री सर्वेश्वरी समूह के अध्यक्ष हैं । इसकी चर्चा हम यथासमय करेंगे ।
9………अघोरेश्वर को पहचानकर उनकी शरण में आने वाले योगियों में से कुछ लोगों की विचित्रता ने जन मानस को गहरे तक प्रभावित किया था । उन्हीं बीर साधकों, सिद्धों, अवधूत पद पर प्रतिष्ठित औघड़ों के विषय में हम यहाँ चर्चा कर रहे हैं । अघोरेश्वर का आशीष इन साधकों को कितनी ऊँचाई प्रदान किया जानने लायक है ।तपसी बाबा जी
छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में उँचे उँचे पर्वतों की उपत्यका में बगीचा नामक एक कस्बा बसा है । यहाँ की जलवायू पूरे छत्तीसगढ़ से अलग है । सभी दिशाओं में स्थित उँचे उँचे पर्वतों के कारण यहाँ सूर्योदय देर से तथा सूर्यास्त जल्दी हो जाता है । यहाँ की भूमि पर्वतों से उतरने वाली प्राकृतिक खाद से उपजाऊ तथा झरनों के जल से सिंचित है । पर्वतों से छनकर आती शीतल एवँ मन्द बयार इस क्षेत्र को निवास हेतु सुखकर एवँ स्वाश्थ्यप्रद बनाती है । इस क्षेत्र में ही एक आश्रम और है, जिसे कैलाशगुफा कहा जाता है । इस आश्रम की स्थापना सँत गहिरा गुरु जी महाराज ने किया था । आश्रम के अलावा देव वाणी संस्कृत के पठन पाठन हेतु एक रेसिडेंन्सियल स्कूल की स्थापना भी गहिरा गुरु जी ने किया है ।
बगीचा कस्बे के बीच में एक छोटा परन्तु सुन्दर सा आश्रम है । इसी आश्रम में तपसी बाबा निवास करते थे । क्षेत्र की जनता में बाबा का बड़ा सम्मान था ।
कहते हैं बाबा अपनी युवावस्था में ही गृह त्याग कर सन्यास ग्रहण कर लिये थे । साधना के क्रम में उन्होने सँकल्प लेकर चित्रकूट में भगवान काँतानाथ जी की परिक्रमा करने लगे । आपने सँकल्प बारह वर्ष की परिक्रमा का लिया था और परिक्रमा लगातार बारह वर्षोँ तक चलती भी रही थी । अभी परिक्रमा को बारह वर्ष पूर्ण होने में तीन दिन शेष रह गये थे कि इस कठोर तपश्चर्या के सुफल के रुप में आपको अघोरेश्वर भगवान राम जी का दर्शन प्राप्त हुआ । आपने अघोरेश्वर को पहचान लिया । आपने इतने वर्षों की कठोर तपश्चर्या , जिसे पूर्ण होने में मात्र तीन दिन ही शेष थे, छोड़ दिया और अघोरेश्वर का अनुगमन करने लगे । अघोरेश्वर की कृपा पाकर आपने कुछ ही समय में अपना इष्ट प्राप्त कर लिया ।
बाबा अब समाधि ले चुके हैं ।
सन् १९६७ ई० के नेपाल भ्रमण के पश्चात बाबा जशपुरनगर के आश्रमों की व्यवस्था तथा अनुष्ठान आदि के लिये सोगड़ा चले गये । बाबा के पास विभिन्न मन्तव्य लेकर अनेकानेक लोग आने लगे थे । उनका ध्येय ज्यादातर लौकिक समृद्धि, आल औलाद, नौकरी चाकरी, शादी ब्याह आदि के लिये याचना करना और अघोरेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करना होता था । अघोरेश्वर इस बात से दुखी हो उठते थे । उनके पास अध्यात्म की विशाल सम्पदा थी और वे उस सम्पत्ति को मुक्त हस्त से बाँटना भी चाहते थे, पर उनके पास आने वालों में से ज्यादातर लोगों की रुचि अध्यात्म की ओर नहीं थी। उन्ही के बीच कुछ दिब्य आत्माओं ने भी बाबा से सम्पर्क साधा और उनका आशीर्वाद पाकर कृतकृत्य भी हुए । कतिपय ऐसी ही आत्माओं का संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ।
आदरणीय पारस नाथ जी सहाय
सहाय जी का जन्म पटना में हुआ था । पिता दीवान थे अतः आपका लालन पालन राजपरिवार में हुआ । गौर वर्ण, लम्बा, दुबला पर स्वस्थ काया, अजान बाहू, भेदक दृष्टी, आप दिब्य दर्शन पुरुष हैं । आप दो भाई हैं । आपकी बहनें भी दो थीं । सबसे बड़ी बहन आरा बिहार में ब्याही थी । दूसरी बहन पूर्व रायगढ़ जिला में जशपुरनगर में व्याही थी । दूसरी बहन के पास रहने के उद्देश्य से आप जशपुरनगर आ बसे तथा क्लर्क की सरकारी नौकरी करने लगे थे । सभी लोग इसीलिये आपको सहाय बाबू के नाम से ही जानते हैं ।
एकबार आपने बतलाया था कि “वे अभी किशोर ही थे । अपनी दीदी के यहाँ आरा गये हुए थे । वहीं अघोरेश्वर से उनकी भेंट किसी एकाँत जगह पर हो गई थी और गुरू का आशीर्वाद अनायास ही प्राप्त हो गया था । ”
बाद में आपकी शादी हो गई और आप जशपुरनगर आ गये थे । एक बार आपने लेखक को बतलाया था कि सोगड़ा आश्रम में आपका दीक्षा संस्कार हुआ था । आप उस समय के साधक हैं जब अघोरेश्वर मुक्तहस्त से साधनाएँ बाँटा करते थे । जिसने जो माँगा वह मिला । जिसने जो जानना चाहा बता दिया । बाद में तो बाबा भी ठोक बजाकर शिष्य बनाते थे और उसके पात्र के अनुसार ही साधना बतलाते थे ।इस लेखक की भेंट सहाय बाबू से सन् १९७२ ई० में हुई थी तथा आज भी सम्पर्क बना हुआ है । आदरणीय सहाय बाबू ने ही लेखक को अघोरेश्वर के चरणों में शरण लेने के लिये प्रेरित किया था ।
सहाय बाबू मुड़िया साधू तो नहीं हैं । गृहस्थ हैं , परन्तु योगी दीक्षा प्राप्त सम्पूर्ण योगी हैं । अघोरेश्वर के जशपुर आगमन के पश्चात प्रारंभिक शिष्यों में से एक सहाय जी गृहस्थ होते हुए भी साधू का जीवन जीते हैं । लेखक को सहाय बाबू को पास से देखने का अनेक बार अवसर मिला है । वे अत्यंत ही सादा जीवन जीते हैं । उनकी आवश्यकताएँ अत्यंत ही अल्प मात्रा में होती हैं । उनकी साधना बड़े ही गोपनीय ढ़ँग से चलती रहती है । यदि आप साथ हैं तो वे आपको कभी सोते हुए नहीं मिलेंगे । आज लगभग ७५ वर्ष की आयु में भी आप अधेड़ दिखते है तथा शरीर में वही चुस्तीफुर्ती विद्यमान है । चेहरे का तेज तो बस देखते ही बनता है ।
आदरणीय सहाय बाबू सिद्ध महात्मा हैं । उनके अनेक अलौकिक कृत्य लेखक ने देखा सुना है । आप ” आत्म चरितम् न प्रकाशयेत ” में विश्वास रखते हैं । आजकल आप साधारण गृहस्थ का जीवन जीते हुए रायगढ़, छत्तिसगढ़ में निवास कर रहे हैं ।अवधूत श्याम राम जी
आपका पूर्व नाम श्री विरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव था । आपका जन्म छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में धर्मजयगढ़ में हुआ था । आपका परिवार धर्मजयगढ़ का उच्च और सम्मानित कायस्थ परिवार है । आपका परिवार पढ़ा लिखा बुद्धिजीवीयों के परिवार के रुप में जाना जाता है । आप पूर्व धर्मजयगढ़ स्टेट में थानेदार के पद पर कार्यरत थे । स्टेट बिलय के पश्चात आप मलेरिया इन्स्पेक्टर के पद पर कार्य करने लगे । आप शुरू से ही नैतिकवान तथा सच्चरित्र अधिकारी के रुप में विख्यात थे ।
एक बार अपनी नौकरी के सिलसिले में दौरा करते समय आपको जँगल में अघोरेश्वर भगवान राम जी का दर्शन लाभ हो गया । दर्शन लाभ होते ही आपका मन सँसार से उचाट हो गया । आप नौकरी छोड़कर अघोरेश्वर की शरण में सोगड़ा आश्रम पहुँच गये । आपके साधु बनने के समय पत्नि, सन्तान, भाईयों सहित भरा पूरा परिवार था । परिवार ने भी प्रसन्नतापूर्वक आपको अपने पारिवारिक दायित्वों से मुक्त कर साधु जीवन स्वीकारने में सहयोग प्रदान किया था ।
दीक्षा के उपराँत आपका नाम श्याम बाबा अघोरी हो गया । आप यौगिक क्रियाओं में अत्यँत ही प्रवीण थे । आपकी गुरु निष्ठा अद्वितीय थी । क्षेत्रीय जनता के लिये आप बड़े विचित्र अघोरी थे । आपने ज्यादातर समय जशपुरनगर के पास स्थित ” गम्हरिया आश्रम ” में ही बिताया था ।
इस लेखक को धर्मजयगढ़ निवास काल में यदाकदा श्याम बाबा के आतिथ्य का सुयोग मिलता था । चर्चा भी होती थी । आप सदैव लेखक को अघोरेश्वर के और निकट जाने तथा साधना हेतु मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिये अभिप्रेरित किया करते थे । आप कहा करते थे ” दौड़िये पण्डा जी दौड़िये, बाद में मौका नहीं मिलेगा । ” आपकी बात सच हो गई ।
श्याम बाबा देश के विभिन्न राज्यों में बहुत घूमे हैं । आपको भूतपूर्व राज परिवारों से सम्मान और सहयोग मिलता रहता था ।
एक बार साधना विषयक चर्चा में आपने लेखक को बतलाया थाः
” वे हमारी साधना के प्रारंभिक दिन थे । गुरु का आदेश हुआ कि जाइये भ्रमण कीजिये । यह भी आदेश था कि भ्रमण में पैसा को नहीं छूना है । हम भ्रमण पर निकल पड़े । पास में कुछ था नहीं । कपड़ा लत्ता हमने लिया नहीं । जशपुर बस स्टैण्ड पर राँची जाने वाली बस खड़ी थी । कण्डक्टर पहचानता था । पूछाः “बाबा कहाँ जाइयेगा ? ।” हम कहेः ” चलते हैं ! जहाँ मन करेगा उतर जायेंगे ।” हम बस में सवार हो गये । बस चली । रास्ते में मन विरक्त होने लगा । एक बस स्टाप पर हम उतर गये ।
जहाँ हम उतरे थे वह छोटा सा गाँव था । हमें कोई पहचानता नहीं था । हम किधर जावें सोचते सड़क पर खड़े थे । हमने देखा कि एक ओर हरियाली दिख रही है । हम उधर ही पैदल चलने लगे । साँझ को किसी श्मशान में रात बिताने के लिये ठहर जाते । भोर में फिर चल पड़ते । कोई खाना दे देता तो खा लेते नहीं तो दो, दो तीन दिन तक जल पीकर गुजारा करना पड़ जाता था । उस समय हम तिथि, वार, दिशा , समय से मुक्त हो गये थे । पता नहीं कितने दिनों के बाद बाबा का आदेश मिला और हम गम्हरिया आश्रम लौट आये ।”
श्याम बाबा की अँतिम यात्रा भी विचित्र ढ़ँग से हुई थी ।
“उन दिनों अघोरेश्वर गम्हरिया आश्रम में ही थे । एक दिन प्रातःकाल में श्याम बाबा अघोरेश्वर के निकट उपस्थित हुए । उन्होने दोनो हाथ जोड़कर अघोरेश्वर के चरणों में प्रणिपात करने के बाद निवेदन किया कि वे भ्रमण में जाना चाहते हैं । अघोरेश्वर कुछ काल तक श्याम बाबा को अपलक देखते रहे, फिर पास खड़े एक सेवादार से कहा कि वे जाकर उनका बड़ा वाला टार्च ले आवें । टार्च आ जाने के बाद अघोरेश्वर ने श्याम बाबा को पास बुलाया और टार्च देते हुए कहा कि लीजिये रास्ता देखने में काम आयेगा ।
श्याम बाबा गुरू की आज्ञा पाकर भ्रमण में निकल पड़े । कुछ दिनों के पश्चात आप बगीचा नामक कस्बे में अपने भक्त के यहाँ पहुँचे । भक्त बड़ा आनन्दित हुआ । दुसरे दिन प्रातः पद्मासन में बैठकर आपने यौगिक क्रिया द्वारा शरीर से प्राण को मुक्त कर दिया ।”
श्याम बाबा की समाधि का समाचार सुनकर अघोरेश्वर भी उदास हो गये थे ।
प्रकृति के अवयव गुणों के भीतर रचित हैं । गुण तीन हैं । १, सत्वगुण २, रजोगुण ३, तमोगुण । गुण विभाग से यह सृष्टि है अतः सर्वत्र तीनों गुण विद्यमान हैं । जिस गुण की विद्यमानता जहाँ अधिक परिमाण में होती है वहाँ उसका प्रभाव सहज दृष्टिगोचर होता है, बाकी दो गुण रहते तो हैं परन्तु गौण रूप से । प्रभावहीन या अल्प प्रभाववान । सत्वगुण प्रभावान्वित स्थलों पर गुण प्रभाव के चलते व्यक्ति का हृदय, देह, मन आदि शुद्ध हो जाता है । ऐसे स्थलों को तीर्थ कहते हैं ।
कुछ स्थान स्वाभाविक सत्व गुण प्रधान हैं, जैसे कि ” वाराणसी, तीर्थ राज प्रयाग, पुरी, आदि” । जिन स्थलों पर ॠषि लोग तपस्या कर चुके हैं, जहाँ साधकों ने उच्चतर शक्ति आहरित किया है, जहाँ पर सन्त, महापुरुष, अघोरेश्वर उपदेश देते रहे हैं, ज्ञान संचार या दीक्षा संस्कार करते रहे हैं , सिद्ध अवस्था या परमतत्व को प्राप्त कर लिया है, किसी महापुरुष का जन्म या निर्वाण हुआ है, ऐसे सभी स्थल उक्त निमित्त के कारण सत्वगुण प्रधान हो गये हैं । जिन लोगों में शक्ति अनुभव की क्षमता है, उन स्थलों में जाकर उन्मुक्त भाव से बैठते हैं तो स्पन्दन होता है, क्रियाएँ होती हैं, मन उर्घ्वगतिमान होता है । ये सभी स्थल भी तीर्थ हैं ।
उपरोक्त तीर्थ स्थावर तीर्थ कहलाते हैं । इनके अलावा दो प्रकार के तीर्थ और होते हैं । वे हैं, १, मानस तीर्थ २, जँगम तीर्थ ।
मानस तीर्थ के लिये कहीं जाना आना नहीं पड़ता । ये मनुष्य के मानसिक गुण हैं । ये हैं, सत्य, दया, परोपकार, अहिंसा, क्षमा आदि । इनमें से एक तीर्थ में स्नान कर लेने वाला व्यक्ति भी सिद्ध हो जाता है । महाराज हरिश्चन्द्र ने सत्य की, महाराज शिवि ने त्याग की साधना करके ही परमपद प्राप्त कर लिया था । राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने पूर्व जन्मों में बोधिसत्व रुप में इन्ही मानस तीर्थों की परमिति साधकर दश पारमिताएँ प्राप्त करके बुद्धत्व प्राप्त किया था ।
मनुष्य रुप में जन्म लेकर जिन्होंने त्याग, तपस्या, ज्ञान, विज्ञान, योग, उपासना, भक्ति तथा मानस तीर्थों में अवगाहन कर सिद्ध हो चुके हैं ऐसे समस्त संतों को जँगम तीर्थ कहते हैं । सदगुरु जँगम तीर्थ हैं । ऐसे जँगम तीर्थों से सम्पर्क करने से, सानिध्य में रहने से, मेधा शुद्ध होती है, आत्मा का उन्नयन होता है, मन निर्मल एवं निश्छल होता है । वृत्तियाँ भी सुकोमल होकर सात्विक हो जाती हैं ।
भारतवर्ष में तीर्थ यात्रा और परिभ्रमण का बड़ा महत्व माना गया है ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी ने मानस तीर्थों का अवगाहन अब तक कर चुके थे, उनकी पारमिता भी सिद्ध कर लिया था । अब उन्होंने देश की प्राचीन सन्त परिपाटी का अनुगमन करते हुए समग्र पृथ्वी के स्थावर और जँगम तीर्थों का साक्षात्कार करने का निश्चय किया । वैसे तो साधना काल में ही आप मुख्य मुख्य तीर्थों की यात्रा कर चुके थे । कभी भी वे एक जगह स्थायी निवास नहीं करते थे । आगे बढ़ते जाना उनके स्वभाव में था ।
२१ सितम्बर सन् १९६१ ई० को श्री सर्वेश्वरी समूह की स्थापना हो चुकी थी । बाबा का तीर्थाटन चित्रकूट यात्रा से शुरु हो चुका था । सन् १९६२ ई० के मध्य तक औघड़ भगवान राम कुष्ठ सेवा आश्रम, पड़ाव वाराणसी में कुष्ठ अस्पताल बाबा का निवास बन गया । बाबा ने पड़ाव में निवास करना शुरु भी कर दिया । आनेवाले भक्तों श्रद्धालुओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी ।
चित्रकूट यात्रा
इस यात्रा में कालिंजर की भैरवी के आग्रह पर घोरा देवी के मन्दिर में एक अनुष्ठान सम्पन्न हुआ था । इस अनुष्ठान में अघोरेश्वर भगवान राम जी के साथ अघोराचार्य श्री सोमेश्वर राम जी, भरतमिलाप के महन्थ तथा भैरवी ने सक्रिय भूमिका का निर्वहन किया था । चक्रार्चन के समय आकाशगामिनी भैरवियाँ भी शामिल हुईं थीं ।
बाबा की यह यात्रा एक सप्ताह तक चली ।
नेपाल यात्रा
सन् १९६८ ई० के फागुन मास मे शिवरात्री के समय यह यात्रा हुई थी । बाबा की यह यात्रा इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि आज जो श्री परमेश्वरी सेवा केन्द्र, काठमान्डु, श्री माँ गुरु नारी समूह, काठमान्डु आदि देखते हैं उसका बीजारोपण इसी यात्रा के द्वारा हुआ था ।
अवधूत सिंह शावक राम
कहा जाता है कि अघोरेश्वर भगवान राम जी के प्रथम सन्यासी शिष्य होने का गौरव औघड़ सिंह शावक राम जी को ही है । आपका जन्म बिहार राज्य में भोजपुर जनपद के पाथर नामक गाँव में जगत प्रसिद्ध महाराज बिक्रमादित्य के कुल में सन् १९२१ ई० को हुआ था । आप कोलकाता विश्वविद्यालय के स्नातक थे । आप गुरु अघोरेश्वर भगवान राम जी से भेंट के पहले विभिन्न जागतिक प्रश्नों के समाधान के लिये हिमालय की उपत्यकाओं में स्थित विभिन्न प्रदेशों की अनेक बार यात्रा कर चुके थे । इन यात्राओं में अनेक साधु, सन्त महात्मा से हुई भेंट आपको आपके प्रश्नो का उत्तर नहीं दिला सकी । आप थक हारकर घर बैठ गये ।
सन् १९६६ ई० में आपको सदप्रेरणा हुई और आप अघोरेश्वर भगवान राम कुष्ठ सेवा आश्रम , पड़ाव , वाराणसी पहुँच गये । आश्रम के मन्दिर में भगवती की आराधना करते हुए आपको आश्चर्यजनक अनुभूति हुई । आपने निश्चय कर लिया कि अपने पिछले जीवन को विराम देकर गुरु चरणों में शरण पायेंगे । बाबा की कृपा हुई और कुछ ही समय के पश्चात आपका दीक्षा संस्कार हो गया ।
कुछ काल तक आप गुरु चरणों में विधिवत अघोर साधना बिषयक शिक्षा ग्रहण करते रहे, फिर गुरु ने आपको आदि आश्रम हरिहरपुर भेज दिया । आप हरिहर आश्रम में दस वर्षों तक रहे । आपने अपनी समस्त साधना, अनुष्ठान यहीं रहकर पूर्ण किया । साधना की अवधि बीत जाने के पश्चात आपको गुरु ने मुक्त कर दिया । आप यात्रा पर निकल पड़े ।
आपने सन् १९७७ ई० में दिलदारनगर , गाजीपुर में गिरनार आश्रम की स्थापना कर ” अघोर सेवा मण्डल ” नामक एक संस्था बनाया । इसके पश्चात आपने अनेक जगहों पर आश्रम, कुटिया का निर्माण कराया । अघोर सेवा मण्डल प्राकृतिक विपदा के समय सेवा का उत्कृष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करता रहा है ।
शावक बाबा को सदैव नेपाल आकर्षित करता रहा है । उन्होने अनेक बार नेपाल की यात्रा की थी । नेपाल के आश्रमों का निर्माण की प्रेरणा आपने ही दी ।
अवधूत सिंह शावक राम जी ने अपना अँतिम समय मसूरी , हिमाचल प्रदेश में निर्मित ” हिमालय की गोद” आश्रम में बिताया । ११ सितम्बर सन् २००२ ई० को आपने शिवलोक गमन किया ।
चित्रकूट
अघोर पथ के अन्यतम आचार्य, भगवत स्वरुप दत्तात्रेय जी की जन्मस्थली चित्रकूट सभी के लिये तीर्थस्थल है । औघड़ों की कीनारामी परम्परा का उत्स यहीं से हुआ माना जाता है । माता अनुसूया जी का आश्रम तथा शरभंग ॠषि जो एक सिद्ध अघोराचार्य थे, का आश्रम, अघोर साधकों के लिये साधना की भूमि प्रदान करते हैं । यहाँ का स्फटिक शिला नामक महा श्मशान तथा पार्श्व में स्थित घोरा देवी का मन्दिर हमेशा से अघोर साधकों को आकर्षित करता रहा है । कहा जाता है कि स्फटिक शिला श्मशान में भगवान राम चन्द्र जी ने माता सीता का भगवती रुप में पूजन किया था और उसी उपलब्धि से वे असुरों का विनाश कर भारत में रामराज्य स्थापित करने में सफलमनोरथ हो सके थे ।
कवि रहीम खानखाना ने शासक का कोप भाजन बनने पर अपना अज्ञातवास काल यहीं पर बिताया था और कहा थाः
“चित्रकूट में रमि रहै रहिमन अवध नरेस ।
जापै विपदा पड़त है सो आवत यहि देस ।।”
अघोरेश्वर भगवान राम जी ने कई बार चित्रकूट की यात्रा की थी ।
प्रभासपत्तन
कलियुग के प्रारम्भ में यादवों ने आपस में लड़कर इसी स्थान पर अपने कुल का नाश कर लिया था । बाद में बाहरी आक्रान्ताओं ने यहाँ पर स्थित सोमनाथ मन्दिर की सम्पत्ति लूटने की गरज से अनेक बार आक्रमण कर व्यापक नर संहार किया । भयंकर नरसंहार होने के कारण यह एक महा श्मशान है । इस श्मशान में एक औघड़ आश्रम प्रतिष्ठित है जहाँ रहकर अनेक साधक तप करते रहते हैं । यहाँ भगवान सोमनाथ विराजते हैं ।
अघोरीकिला
बिहार में चोपन शहर के पास एक बहुत पुराने किले का अवशेष आज भी विद्यमान है । यह कालिंजर का किला पंद्रहवीं सदी से ही निर्जन प्राय रहता आया है । तभी से इस निर्जन किले को अघोरियों ने अपनी साधनास्थली बना रखा है । अभी कुछ वर्ष पहले तक एक सिद्ध अघोराचार्य की कीर्ति सुनने में आती थी । आजकल कुछ एक साधक यहाँ रहकर अपनी साधना में लगे रहते हैं । कुछ भैरवियों की उपस्थिति के भी प्रमाण मिलते हैं ।
जगन्नाथ पुरी
जगत प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर और विमला देवी मन्दिर, जहाँ सती का पाद खण्ड गिरा था, के बीच में एक चक्र साधना वेदी अवस्थित है । यह वेदी वशिष्ठ वेदी के नाम से प्रसिद्ध है । इसके अलावा पुरी का स्वर्गद्वार श्मशान एक पावन अघोर स्थल है । इस श्मशान के पार्श्व में माँ तारा मन्दिर के खण्डहर में ॠषि वशिष्ठ के साथ अनेक साधकों की चक्रार्चन करती हुई प्रतिमाएँ स्थापित हैं ।
श्री जगन्नाथ मन्दिर में भी श्रीकृष्ण जी को शुभ भैरवी चक्र में साधना करते दिखलाया गया है ।
कालीमठ
हिमालय तो सदा दिन से साधकों में आकर्षण जगाता आया है । कितने, किस कोटी के,और कैसे कैसे साधक हिमालय में साधनारत हैं कुछ कहा नहीं जा सकता । नैनीताल से आगे गुप्तकाशी से भी ऊपर कालीमठ नामक एक अघोर स्थल है । यहाँ अनेक साधक रहते हैं । कालीमठ में अघोरेश्वर भगवान राम जी ने एक बहुत बड़ा खड्ग स्थापित किया है । यहाँ से ५००० हजार फीट उपर एक पहाड़ी पर काल शिला नामक स्थल है जहाँ मनुष्य और पशु कठिनाई से पहुँच पाते हैं । कालशिला में भी अघोरियों का वास है ।
मदुरई
दक्षिण भारत में औघड़ों को ब्रह्मनिष्ठ कहा जाता है । यहाँ कपालेश्वर का मन्दिर है साथ ही ब्रह्मनिष्ठ लोगों का आश्रम भी है । आश्रम के प्राँगण में एक अघोराचार्य की मुख्य समाधि है । और भी समाधियाँ हैं । मन्दिर में कपालेश्वर की पूजा औघड़ विधि विधान से की जाती है ।

उपरोक्त स्थलों के अलावा अन्य जगहों पर भी जैसे रामेश्वरम, कन्याकुमारी, मैसूर, हैदराबाद, बड़ौदा, बोधगया आदि अनेक औघड़, अघोरेश्वर लोगों की साधना स्थली, आश्रम, कुटिया पाई जाती है ।
कतिपय अन्य देशों में भी औघड़ , अघोरेश्वर ने भ्रमण के क्रम में जाकर मौज में आकर अपना निवास बना लिया है ।
नेपाल
नेपाल में तराई के इलाके में कई गुप्त औघड़ स्थान पुराने काल से ही अवस्थित हैं । अघोरेश्वर भगवान राम जी के शिष्य बाबा सिंह शावक राम जी ने काठमाण्डु में अघोर कुटी स्थापित किया है। उन्होने तथा उनके बाद बाबा मंगलधन राम जी ने समाज सेवा को नया आयाम दिया है। कीनारामी परम्परा के इस आश्रम को नेपाल में बड़ी ही श्रद्धा से देखा जाता है ।
अफगानिस्थान
अफगानिस्तान के पूर्व शासक शाह जहीर शाह के पूर्वजों ने काबुल शहर के मध्य भाग में कई एकड़ में फैला जमीन का एक टुकड़ा कीनारामी परम्परा के संतों को दान में दिया था । इसी जमीन पर आश्रम, बाग आदि निर्मित हैं । औघड़ रतन लाल जी यहाँ पीर के रुप में आदर पाते हैं । उनकी समाधि तथा अन्य अनेक औघड़ों की समाधियाँ इस स्थल पर आज भी श्रद्धा नमन के लिये स्थित हैं ।
अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल
बिंध्याचल
बिंध्य की पर्वत श्रृँखला एवं उसमें अवस्थित माँ बिंध्यवासिनी का शक्तिपीठ भारत ही नहीं अपितु समग्र विश्व में प्रसिद्ध है । मिरजापुर इस स्थल का रेलवे स्टेशन है, जहाँ से इसकी दूरी मात्र आठ किलोमीटर है । सड़क मार्ग से यह स्थान बनारस, इलाहाबाद, मऊनाथभंजन, रीवा, और औरंगाबाद से जुड़ा हुआ है । बनारस से ७० किलोमीटर तथा इलाहाबाद से ८३ किलोमीटर की दूरी पर बिंध्याचल धाम स्थित है । कहा जाता है कि महिषासुर बध के पश्चात माता दूर्गा इसी स्थान पर निवास हेतु ठहर गईं थीं, इसीलिये यहाँ की अधिष्ठात्री देवी माता दूर्गा को बिंध्यवासिनी के रुप में पूजन किया जाता है । इस स्थल में तीन मुख्य मन्दिर हैं । विन्ध्यवासिनी, कालीखोह और अष्टभुजा । इन मन्दिरों की स्थिति त्रिकोण यन्त्रवत् है । इनकी त्रिकोण परिकरमा भी की जाती है । इस पर्वत में अनेक गुफाएँ हैं, जिनमें रहकर साधक साधना करते हैं । आज भी अनेक साधक , सिद्ध, महात्मा, अवधूत, कापालिक आदि से यहाँ भेंट हो सकती है । इनके अलावा इस स्थल में सैकड़ों मन्दिर बिखरे पड़े हैं ।
बिंध्याचल पर्वत में तीन मुख्य कुण्ड हैं । प्रथम सीताकुण्ड है । कहते हैं रावण बध के पश्चात भगवान रामचन्द्र जी की वापसी यात्रा के समय भगवती सीता जी को बड़ी प्यास लगी । रामअनुज लक्ष्मण जी के तीर चलाने से इस कुण्ड का निर्माण हुआ और भगवती सीता माई की प्यास का शमन हुआ । यहीं से मन्दिर के लिये सीढ़ियाँ जाती हैं । पहले अष्टभुजा मन्दिर है । अष्टभुजा मन्दिर में ज्ञान , विवेक की देवी माता सरस्वती बिराजती हैं । उससे उपर कालीखोह है । यह स्थान यथा नाम काली जी का है । फिर आता है बिंध्याचल का मुख्य मन्दिर माता बिंध्यवासिनी मन्दिर ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी अपने साधना काल में कई वर्षों तक बिंध्याचल में रहे थे । बिंध्याचल में अष्टभुजा मन्दिर से कालीखोह की तरफ थोड़ी दूरी पर एक स्थान आता है, भैरव कुण्ड । यहाँ से प्रायः तीन सौ मीटर की उँचाई पर एक गुफा है । इसी गुफा में अघोरेश्वर रहते थे । आपको याद होगा इसी गुफा में जशपुर के महाराजा स्वर्गीय बिजयभूषण सिंह देव ने अघोरेश्वर का प्रथम दर्शन किया था । बाबा के इस स्थल पर निवास, तपस्या की स्मृति में एक कीर्ति स्तम्भ स्थापित किया गया है, जिसके चारों ओर बाबा के संदेश अँकित हैं । गुफा के भीतर भक्तों, श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ अघोरेश्वर की चरण पादुका एक चट्टान में जड़ दी गई है । यहाँ कई एक साधक आकर नाना प्रकार की साधनाएँ करते और अघोरेश्वर की कृपा से सिद्धी पाकर कृतकृत्य होते हैं ।
भैरवकुण्ड के स्वामी अक्षोभ्यानन्द सरस्वती , जो अघोरपथ के पथिक तो नहीं थे, परन्तु आचार, व्यवहार, शक्ति,और विद्या के मामले में अधिकारी विद्वान थे । स्बामी जी शाक्त परम्परा के कुलावधूत थे । आपको वाक् सिद्धी थी । आपकी प्रसिद्धी दूर दूर तक थी । गृहस्थ से तप के मार्ग में चलकर जिन गिनेचुने महान आत्माओं ने अध्यात्म की उच्चावस्था को प्राप्त किया है, उनमें से एक भैरवकुण्ड के स्वामी अक्षोभ्यानन्द सरस्वती जी भी हैं ।
अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल
तारापीठ
इस स्थान पर दक्ष यज्ञ विध्वंश के पश्चात मोहाविष्ट शिव जी के कंधों से शिव भार्या दाक्षायणी, सती की आँखें भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से कटकर गिरी थीं, इसीलिये यह शक्तिपीठ बन गया और इसीलिये इसे तारापीठ कहते हैं । मातृ रुप माँ तारा का यह स्थल तांत्रिकों, मांत्रिकों, शाक्तों, शैवों, कापालिकों, औघड़ों आदि सब में समान रुप से श्रद्धास्पद, पूजनीय माना जाता है ।
शताब्दियों से साधकों, सिद्धों में प्रसिद्ध यह स्थल पश्चिम बँगाल के बीरभूम अँचल में रामपुर हाट रेलस्टेशन के पास द्वारका नदी के किनारे स्थित है । कोलकाता से तारापीठ की दूरी लगभग २६५ किलोमीटर है । यह स्थल रेलमार्ग एवं सड़क मार्ग दोनो से जुड़ा है । इस जगह द्वारका नदी का बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर है, जो कि भारत में सामान्यतः नहीं पाया जाता । नाम के अनुरुप यहाँ माँ तारा का एक मन्दिर है तथा पार्श्व में महाश्मशान है । द्वारका नदी इस महाश्मशान को चक्राकार घेरकर कच्छपपृष्ट बनाते हुए बहती है ।
यह स्थल तारा साधन के लिये जगत प्रसिद्ध रहा है । पुरातन काल में महर्षि वशिष्ठ जी इस तारापीठ में बहुत काल तक साधना किये थे और सिद्धि प्राप्त कर सफल काम हुए थे । उन्होने इस पीठ में माँ तारा का एक भव्य मन्दिर बनवाया था जो अब भूमिसात हो चुका है । कहते हैं वशिष्ठ जी कामाख्या धाम के निकट नीलाचल पर्वत पर दीर्घकाल तक संयम पूर्वक भगवती तारा की उपासना करते रहे थे , किन्तु भगवती तारा का अनुग्रह उन्हें प्राप्त न हो सका, कारण कि चीनाचार को छोड़कर अन्य साधना विधि से भगवती तारा प्रसन्न नहीं होतीं । एकमात्र बुद्ध ही भगवती तारा की उपासना और चीनाचार विधि जानते हैं । महर्षि वशिष्ठ , यह जानकर भगवान बुद्ध के समीप उपस्थित हुए और उनसे आराधना विधि एवं आचार का ज्ञान प्राप्तकर इस पीठ में आये थे । बौधों में बज्रयानी साधक इस विद्या के जानकार बतलाये जाते हैं । औघड़ों को भी इस विद्या की सटीक जानकारी है ।
वर्तमान मन्दिर बनने की कथा दिलचस्प है । कथा इस प्रकार है
” जयब्रत नाम के एक व्यापारी थे । उनका इस अँचल में लम्बाचौड़ा व्यापार फैला हुआ था । श्मशान होने के कारण तारापीठ का यह क्षेत्र सुनसान हुआ करता था । भय से लोग इधर कम ही आते थे । विशेष दिनों में इक्का दुक्का साधक इस ओर आते जाते दिख जाया करते थे । व्यापार के सिलसिले में जयब्रत को प्रायः इस क्षेत्र से गुजरना पड़ता था । एक बार जयब्रत को पास के गाँव में रात्रि विश्राम हेतू रुकना पड़ा । ब्राह्म मुहुर्त में जयब्रत को स्वप्न में माँ तारा के दर्शन हुए । माँ ने आदेश दिया कि श्मशान की परिधि में धरती के नीचे ब्रह्मशिला गड़ा हुआ है । उसे उखाड़ो और वहीं पर विधिपूर्वक प्राण प्रतिष्ठित करो । स्वप्न में प्राप्त आदेश के अनुसार जयब्रत ब्रह्मशिला उखड़वाया और वर्तमान मन्दिर का निर्माण कराकर माँ तारा की भव्य मूर्ति स्थापित किया ।”
मातृरुपा माँ तारा की मूर्ति दिव्य भाव लिये हुए है । माता ने अपने वाम बाजु में शिशु रुप में शिव जी को लिया हुआ है । शिव जी माता के वाम स्तन से दुग्धामृत का पान कर रहे हैं और माता के स्नेहसिक्त नयन अपलक शिशु शिव जी को निहार रहे हैं । कहते हैं समुद्र मँथन से निकले विष का देवाधिदेव भगवान शिव जी ने पान कर संसार की रक्षा की थी । इस विषपान के प्रभाव से भगवान शँकर को उग्र जलन एवं पीड़ा होने लगी । कोई उपाय न था । माता ने तब शिव जी को इस प्रकार अपना स्तनपान कराकर उन्हें कष्ट से त्राण दिलाया था । इसीलिये माँ को तारिणी भी कहते हैं ।
अघोराचार्य बामाखेपा
तारापीठ में साधना कर अनेक सिद्धियाँ हस्तगत करने वाले एक महान अघोराचार्य हो गये हैं । उनका नाम है ” वामाक्षेपा” । बंगाल के बीरभूम जिलान्तर्गत अतला ग्राम में सर्वानन्द चट्टोपाध्याय एवं श्रीमति राजकुमारी के घर आपका जन्म सन् १८३७ ई० में हुआ था । माता, पिता ने आपका नाम रखा था बामा । बामा चट्टोपाध्याय । आप जन्मना सिद्ध पुरुष थे । माता पिता ने आपको स्कूल भेजा , लेकिन पढ़ाई की ओर आपका ध्यान नहीं था । बचपन से ही आप आँख मूँदकर घँटों चुपचाप बैठे रहते थे । आप सांसारिक नियमों की अवहेलना करने के कारण ग्रामवासियों के द्वारा पागल घोषित कर दिये गये और आपके नाम बामा के साथ खेपा, जिसका अर्थ पागल होता है, जोड़ दिया गया ।
किशोर बामा रात के किसी समय पड़ोसियों के घर से देवताओं की मुर्तियाँ चुराकर पूरी रात पूजा किया करते थे । सुबह मुर्तियों की चोरी के कारण बामा को कड़ा दण्ड भुगतना पड़ता परन्तु वे अगली रात फिर वही काम करते । इसीबीच आपके पिता का स्वर्गवास हो गया । परिवार तो पहले ही गरीब था, अब तो फाके की नौबत आ गयी । बामा कोई भी कार्य करने के योग्य न थे, क्योंकि वे कभी भी अपना होश गँवा बैठते थे । ऐसा कभी भी हो जाता था । कभी लाल फूल देखकर तो कभी कुछ और , उन्हें माँ तारा की स्मृति हो आती थी और वे समाधि में चले जाते थे । अब तो उनकी माता ने भी मान लिया कि उनका पुत्र पागल हो चुका है । माता ने बामा को घर के अँदर बन्द करके रख दिया, परन्तु बामा कहाँ मानने वाले थे । वे रात में चुपचाप दरवाजा खोलकर घर से भाग निकले और द्वारका नदी को तैरकर तारापीठ के महाश्मशान में पहुँच गये ।
बामाखेपा को तारापीठ के महाश्मशान के पार्श्व में कुटी बनाकर साधनरत बाबा कैलाशपति ने अपना शिष्य स्वीकार कर ताँत्रिक विधि विधान सिखाने लगे । आपकी माता द्वारा पुत्र बामा को वापस लौटा ले जाने के सभी प्रयास बिफल हो जाने पर तारा मन्दिर में फूल एकत्र करने के काम पर लगवा दिया गया । आपसे यह काम नहीं सधा । आप अपने आप में डूबे तारापीठ के महाश्मशान में ,जहाँ बिषधर, श्रृगाल, कुत्तों और अन्य बनैले जन्तुओं के साथ रहने लगे । आपको भावावेश की अवस्था में रात, दिन, शीत, गर्मी, आदि कुछ नहीं भाषता था । आप आठों प्रहर माँ तारा के ध्यान में निमग्न रहते थे ।
इस प्रकार एक लम्बा समय बीत गया । आपकी साधना चलती रही । तारापीठ का महाश्मशान बाबा बामाखेपा को परम सत्य को उपलब्ध होते देखता रहा । बाबा का माँ तारा की भक्ति में रोज आनन्दोत्सव होता । बाबा कभी नाचते, कभी गाते और कभी अजगर वृत्ति से पड़े रहते किसी कोने में । बाबा को अब शरीर का भी ध्यान नहीं रह गया था । कमर में लिपटा वस्त्र कब निकल कर गिर जाता उन्हें पता ही नहीं चलता था । वे अवधूत अवस्था में दिगम्बर ही घूमते रहते ।
बाबा का अपनी लौकिक माता के साथ कोई सम्पर्क नहीं रह गया था, परन्तु माँ से वे बहुत प्यार करते थे । अपनी जन्मदात्री को वे माँ तारा के जैसा ही मानते थे । माँ के स्वर्गवास के समय यह बात सिद्ध भी हो गई थी । कहते हैः
” बाबा बामाखेपा को सूचना मिली कि जन्मदात्री माता का स्वर्गवास हो गया । उस समय घनघोर वर्षा हो रही थी । द्वारका नदी उफान पर थी । माता के शव को अँतिम संस्कार के लिये तारापीठ के महाश्मसान तक लाना असंभव हो गया । सगे सम्बन्धी सब किंकर्तब्यविमूढ़ की स्थिति से उबर ही नहीं पा रहे थे । बाबा उफनती द्वारका नदी को तैरकर पार किये और अपने गाँव ” अतला” जाकर माता के शव को कँधे में लेकर फिर बाढ़ भरी द्वारका नदी को तैरकर पार करके तारापीठ के महाश्मशान में ले आये । पीछे से सब सगे सम्बंधी भी आ गये । उन्होने अपने भाई रामचरन से माता का अँतिम संस्कार कराया । जनश्रुति है कि बाबा की माता के शवदाह के समय चारों ओर घनघोर वर्षा हो रही थी, परन्तु शवदाह के लिये एकत्रित जनों पर एक बूँद भी पानी नहीं गिरा ।”
तारापीठ का यह पागल संत अब अनेक सिद्धियों का स्वामी हो गया था । आसपास के लोग बाबा के पास बड़ी संख्या में आने लगे थे । अनेक लोगों का बाबा के आशीर्वाद से कष्टनिवारण भी हो जाया करता था । बाबा के चमत्कार की, अलौकिक क्रियाकलाप की अनेक कथाएँ कही सुनी जाती हैं ।
बाबा बामाखेपा की महासमाधि सन् १९११ ई० को हुई थी ।
तारापीठ में साधना हेतु न केवल पूर्वाँचल अपितु समग्र देश और विदेशों से भी साधक आते रहते हैं । साधक प्रायः अधिक संख्या में अमावश्या को दिखते हैं । अन्य अवसरों पर श्रद्धालुओं, भक्तों, पर्यटकों आदि की ही भीड़ होती है ।
अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल
हिंगलाज धाम
अघोरपथ के अनेक पुन्य स्थलों में से एक हिंगलाज वर्तमान पाकिस्तान देश के बलुचिस्तान राज्य में अवस्थित है । यह स्थान सिंधु नदी के मुहाने से १२० किलोमीटर और समुद्र से २० किलोमीटर तथा कराची नगर के उत्तर पश्चिम में १२५ किलोमीटर की दूरी पर हिंगोल नदी के किनारे स्थित है । यह अँचल मरुस्थल होने के कारण इस स्थल को मरुतीर्थ भी कहा जाता है । इस स्थल के श्रद्धालु पूरे भारतवर्ष में पाये जाते हैं ।
भारतवर्ष के ५२ शक्तिपीठों में इस पीठ को भी गिना जाता है । कथा है कि एक बार महाराज दक्ष प्रजापति यज्ञ करा रहे थे । उन्होने समस्त देवताओं को निमंत्रित किया था । उस यज्ञ में उनके अपने जामाता शिव जी को आमंत्रित नहीं किया गया था । दक्ष पुत्री, शिव भार्या दाक्षायनी, सती शिव जी के मना करने पर भी अनिमन्त्रित ही पिता के घर यज्ञस्थल पहुँच गईं । महाराज दक्ष के द्वारा शिव जी को सादर आमन्त्रित कर पूजन करने के सती के प्रस्ताव को अमान्य कर देने पर इसे अपना और अपने पति का अपमान माना और सती क्रुद्ध हो गईं । उन्होने अपमान की पीड़ा में योगाग्नि उत्पन्न कर अपना शरीर दग्ध कर त्याग दिया । सती के इस प्रकार से शरीर त्याग देने से शिव जी को मोह हो गया । शिव जी ने सती के अधजले शव को कन्धे पर उठाये उन्मत्त होकर इधर उधर घूमने लगे । शिव जी की मोहाभाविष्ट दशा से चिन्तित देवताओं ने भगवान विष्णु से उपाय करने की प्रार्थना की । भगवान विष्णु अपने आयुध सुदर्शन चक्र से शिव जी के कन्धे पर के सती के शव को खण्ड खण्ड काटकर गिराने लगे । हिंगलाज स्थल पर सती का सिरोभाग कटकर गिरा । अन्य इक्यावन शक्तिपीठों में सती के विभिन्न अँग कटकर गिरे थे । इस प्रकार ५२ शक्तिपीठों की स्थापना हुई ।
जनश्रुति है कि रघुकुलभूषण मर्यादा पुरुषोत्तम राम चन्द्र जी शक्ति स्वरुपा सीता जी के साथ रावण बध के पश्चात ब्रह्म हत्या दोष के निवारण के लिये हिंगलाज गये और देवी की आराधना किये थे । यह भी कहा जाता है कि पुरातन काल में इस क्षेत्र के शासक भावसार क्षत्रीयों की कुल देवी हिंगलाज थीं । बाद में यह क्षेत्र मुसलमानों के अधिकार में चला गया । यहाँ के स्थानीय मुसलमान हिंगलाज पीठ को “बीबी नानी का मंदर” कहते हैं । अप्रेल के महीने मे स्थानीय मुसलमान समूह बनाकर हिंगलाज की यात्रा करते हैं और इस स्थान पर आकर लाल कपड़ा चढ़ाते हैं, अगरबत्ती जलाते है, और शिरीनी का भोग लगाते हैं । वे इस यात्रा को “नानी का हज” कहते हैं । आसपास के निवासी जहर से सम्बिधित विमारीयों के निवारण के लिये इस स्थल की यात्रा करते हैं, माता का पूजन , प्रार्थना करते हैं । उनकी मान्यता है कि हिंगुल में जहर को मारने की शक्ति होती है अतः हिंगलाज देवी भी जहर से सम्बंधित रोगों से त्राण दिलाने में सक्षम हैं ।
हिंगलाज देवी की गुफा रंगीन पत्थरों से निर्मित है । गुफा में प्रयुक्त विभिन्न रंगों की आभा देखते ही बनती है । माना जाता है कि इस गुफा का निर्माण यक्षों के द्वारा किया गया था, इसीलिये रंगों का संयोजन इतना भव्य बन पड़ा है । पास ही एक भैरव जी का भी स्थान है । भैरव जी को यहाँ पर “भीमालोचन” कहा जाता है । अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी की हिंगलाज यात्रा की कथा हमें प्राप्त होती है । कथा कुछ इस प्रकार हैः
“उन दिनों बाबा कीनाराम जी गिरनार में तप कर रहे थे । भ्रमण के क्रम में एकबार बाबा कच्छ की खाड़ियों, दलदलों को, जिनको पार करना असम्भव है, अपने खड़ाऊँ से पार कर हिंगलाज जा पहुँचे । हिंगलाज पहुँचकर बाबा कीनाराम मंदिर से कुछ दूरी पर घूनी लगाये तपस्या करने लगे । बाबा कीनाराम जी को हिंगलाज देवी एक कुलीन घर की महिला के रुप में प्रतिदिन स्वयं भोजन पहुँचाती रहीं । बाबा की धूनी की सफाई, व्यवस्था १०,११ वर्ष के बटुक के रुप में, भैरव स्वयं किया करते थे । एक दिन महाराज श्री कीनाराम जी ने पूछ दियाः ” आप किसके घर की महिला हैं ? आप बहुत दिनों से मेरी सेवा में लगी हुई हैं । आप अपना परिचय दीजिये नहीं तो मैं आप का भोजन ग्रहण नहीं करुँगा ।” मुस्कुराकर हिंगलाज देवी ने बाबा कीनाराम जी को दर्शन दिया और कहाः ” जिसके लिये आप इतने दिनों से तप कर रहे हैं, मैं वही हूँ । मेरा अब समय हो गया है । मैं अपने नगर काशी में जाना चाहती हूँ। अब आप जाइये और जब कभी स्मरण कीजियेगा मैं आप को मिल जाया करूँगी “। महाराज श्री कीनाराम ने पूछाः माता, काशी में कहाँ निवास करियेगा ? हिंगलाज देवी ने उत्तर दियाः मैं काशी में केदारखण्ड में क्रीं कुण्ड पर निवास करूँगी” । उसीदिन से ॠद्धियाँ महाराज श्री कीनाराम के साथ साथ चलने लगीं और बटुक भैरव की उस धूनी से महाराज श्री का सम्पर्क टूट गया । महाराज ने धूनी ठंडी की और चल दिये ।”

क्रीं कुण्ड स्थल वाराणसी में एक गुफा है । उक्त गुफा में बाबा कीनाराम जी ने हिंगलाज माता को स्थापित किया है । सामान्यतः यह एक गोपनीय स्थान है ।
इन दो स्थलों के अलावा हिंगलाज देवी एक और स्थान पर विराजती हैं, वह स्थान उड़ीसा प्रदेश के तालचेर नामक नगर से १४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । जनश्रुति है कि विदर्भ क्षेत्र के राजा नल माता हिंगलाज के परम भक्त हो गये हैं । उनपर हिंगलाज देवी की महती कृपा थी । एकबार पूरी के महाराजा गजपति जी ने विदर्भ नरेश नल से सम्पर्क साधा और निवेदन किया कि जगन्नाथ मंदिर में भोग पकाने में बड़ी असुविधा हो रही है, अतः माता हिंगलाज अग्नि रुप में जगन्न्थ मंदिर के रंधनशाला में विराजमान होने की कृपा करें । माता ने राजा नल द्वारा किया गया निवेदन स्वीकार कर लिया और जगन्नाथ मंदिर परिसर में अग्नि के रुप में स्थापित हो गईं । उन्हीं अग्निरुपा माता हिंगलाज का मंदिर तालचेर के पास स्थापित है ।
छत्तिसगढ़ में हिंगलाज देवी का शाक्त सम्प्रदाय में प्रचूर प्रचार रहा है । यहाँ शक्ति साधकों, मांत्रिकों को बैगा कहा जाता रहा है । इस अँचल में अनेक शक्ति साधकों के अलावा समर्थ आचार्य भी हुये हैं । उनमें से कुछ का नाम इस प्रकार हैः १, देगुन गुरु, २, धनित्तर गुरु, ३ बेंदरवा गुरु |इससे रुद्र के अँशभूत हनुमान इँगित होते हैं | ४, धरमदास गुरु | धरमदासजी कबीरपँथ के आचार्य थे | ५, धेनु भगत, ६, अकबर गुरु |आप मुसलमान थे | आदि । इन सब गुरुओं ने हिंगलाज देवी को सर्वोपरी माना है और बोल मंत्रों में देवी को गढ़हिंगलाज में स्थिर हो जाने का निवेदन करते हैं । हिंगलाज के सन्दर्भ का एक बोल मन्त्र दृष्टव्य हैः
” सवा हाथ के धजा विराजे, अलग चुरे खीर सोहारी,
ले माता देव परवाना, नहिं धरती, नहिं अक्कासा,
जे दिन माता भेख तुम्हारा, चाँद सुरुज के सुध बुध नाहीं,
चल चल देवी गढ़हेंगुलाज, बइठे है धेनु भगत,
देही बिरी बंगला के पान, इक्काइस बोल, इक्काइस परवाना,
इक्काइस हूम, धेनु भगत देही, शीतल होके सान्ति हो ।”
अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल
अघोरपथ के पथिक, सिद्ध, महात्मा, संत,अवधूत,अघोरेश्वर जिन स्थलों में रहकर साधना किये हैं , तप किये हैं, वे स्थल जाग्रत अवस्था में आज भी साधकों को साधना में नई उँचाइयाँ प्राप्त करने में सहयोगी हो रहे हैं । इन स्थलों में उच्च स्तर के साधकों को सिद्ध, अवधूत, अघोरेश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन , मार्गदर्शन भी प्राप्त हो जाया करता है । हम यहाँ कतिपय ऐसे ही स्थलों की चर्चा करेंगे ।
१, गिरनार
गुजरात राज्य में अहमदाबाद से लगभग ३२७ किलोमीटर की दूरी पर अपने सफेद सिंहों के लिये गीर के जगत प्रसिद्ध अभयारण्य के पार्श्व में एक नगर बसा है, नाम है जूनागढ़ । इस शहर के आसपास से शुरु होकर पहाड़ों की एक श्रृँखला दूर तक चली गई है । इसी पर्वत श्रृखला का नाम ही गिरनार पर्वत है । इस पर्वत श्रृँखला का सबसे उँचा पर्वत जूनागढ़ शहर से मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है । इस पर्वत की तीन चोटियाँ हैं । इन तीनों में से सबसे उँची चोटी पर भगवान दत्तात्रेय जी का एक छोटा सा मन्दिर है, जिसके अंदर भगवान दत्तात्रेय जी की चरणपादुका एवं कमण्डलु तीर्थ स्थापित हैं । दूसरे शिखर का नाम बाबा गोरखनाथ के नाम है । कहा जाता है यहाँ बाबा गोरखनाथ जी ने बहुत काल तक तप किया था । इन दोनो शिखर के बीच में एक तीसरा शिखर है जो अघोरी टेकड़ी कहलाता है । इसकी चोटी में एक धूनि हमेशा प्रज्वलित रहती है, और यहाँ अनेक औघड़ साधु गुप्त रुप से तपस्या रत रहते हैं ।
गिरनार की प्रसिद्धि के तीन कारक गिनाए जाते हैं ।
पहला, भगवान दत्तात्रेय जी का कमण्डलु तीर्थ । भगवान दत्तात्रेय भगवान सदाशिव के पश्चात अघोरपथ के अन्यतम आचार्य हो गये हैं । उन्होने अपने तपोबल से गिरनार को उर्जावान बना दिया है । इस स्थल पर साधकों को सरलता से सिद्धि हस्तगत होती है । कहा तो यह भी जाता है कि जो योग्य साधक होते हैं, उन्हें भगवान दत्तात्रेय यहाँ पर प्रत्यक्ष दर्शन देकर कृतार्थ भी करते हैं ।
दूसरा, गिरनार पर्वत के मध्य में स्थित जैन मन्दिर । लगभग ५५०० सिढ़ियाँ चढ़ने पर यह स्थान आता है । यहाँ पर कई जैन मन्दिर है । इन मन्दिरों का निर्माण बारहवीं, तेरहवीं शताब्दी में हुआ था । इसी स्थान पर जैन धर्म के बाइसवें तीर्थंकर बाबा नेमीनाथ जी परमसत्य को उपलब्ध हुए थे । इस स्थल से जैन धर्म के उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लीनाथ जी का नाम भी जोड़ा जाता है । कोई कोई विद्वतजन मल्लीनाथ जी को स्त्री भी मानते हैं । सत्य चाहे जो हो मल्लीनाथ जी तिर्थंकर थे इसमें कोई संदेह नहीं है । इस प्रकार गिरनार जैन धर्मावलम्बियों के लिये भी तीर्थ है, और बड़ी संख्या में जैन तीर्थयात्री यहाँ आते भी रहते हैं ।
तीसरा, जैन मन्दिर से और ऊपर अम्बा माता का मन्दिर अवस्थित है । यह मन्दिर भी पावन गिरनार पर्वत की प्रसिद्धि का एक कारण है । यह एक जाग्रत स्थान है । वर्षभर तीर्थयात्री यहाँ माता के दर्शन के लिये आते रहते हैं ।
श्री सर्वेश्वरी समूह वाराणसी द्वारा प्रकाशित “औघड़ राम कीना कथा ” ग्रँथ में अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी का जूनागढ़ , गिरनार प्रवास उल्लिखित है । कथा कुछ इस प्रकार आगे बढ़ती हैः
9…औघड़ सिंह शावक राम जी

सन् १९६६ ई० में अघोरेश्वर भगवान राम जी ने प्रथम सन्यासी शिष्य के रुप में औघड़ सिंह शावक राम जी को सँस्कारित किया था । पूर्व में आपके विषय में प्राप्त समस्त जानकारी दी जा चुकी है । साधना की दस वर्ष की अवधि बीत जाने के पश्चात आपको गुरु ने मुक्त कर दिया । आप यात्रा पर निकल पड़े । आपने सन् १९७७ ई० में दिलदारनगर , गाजीपुर में गिरनार आश्रम की स्थापना कर ” अघोर सेवा मण्डल ” नामक एक संस्था बनाया । इसके पश्चात आपने अनेक जगहों पर आश्रम, कुटिया का निर्माण कराया । आपके द्वारा स्थापित अघोर सेवा मण्डल प्राकृतिक विपदा के समय सेवा का उत्कृष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करता रहा है ।
अवधूत सिंह शावक राम जी ने अपना अँतिम समय मसूरी , हिमाचल प्रदेश में निर्मित ” हिमालय की गोद” आश्रम में बिताया । ११ सितम्बर सन् २००२ ई० को आपने शिवलोक गमन किया ।
अवधूत प्रियदर्शी राम जी
अघोरेश्वर भगवान राम जी के सानिध्य में अनगिनत लोग आये । उनमें गृहस्थ थे, साधु थे, श्रद्धालु थे, भक्त थे, सेवक थे, योगी थे, तान्त्रिक थे, मान्त्रिक थे, हिन्दु के अलावा मुसलमान थे, क्रिस्चियन थे, सिक्ख थे, बौद्ध थे, पारसी थे, भारतीयों के अलावा अफगान थे, इटेलियन थे, अमरीकी थे, अँग्रेज थे, और न जाने कौन कौन थे । अघोरेश्वर देश, काल, जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि से उपर थे । वे ब्रह्म में सदैव रमण करने वाले चिदानन्द स्वरुप थे ।
सन् १९८० ई० में एक किशोर अघोरेश्वर की शरण में आये । किशोर का दीक्षा सँस्कार हुआ और अघोरेश्वर ने नामकरण किया प्रियदर्शी राम । अघोरेश्वर के साथ लम्बे समय तक अवधूत प्रियदर्शी राम जी रहे हैं । अघोरेश्वर अघोर साधना, समाज, तथा जीवन दर्शन के अनेक विषयों में दर्शी जी को सम्बोधित कर प्रवचन दिया है । इन प्रवचनों को लिपिबद्ध किया गया और सर्वेश्वरी समूह द्वारा अनेक ग्रँथों के रुप में प्रकाशित कर साधकों, श्रद्धालुओं को सुलभ कराया गया है । अवधूत प्रियदर्शी राम जी प्रारँभ से ही गुरु भक्त एवँ नैष्ठिक साधक रहे हैं । अघोरेश्वर के श्री चरणों में बैठकर अवधूत प्रियदर्शी राम जी ने मानस तीर्थों का अवगाहन तो किया ही किया , मानसिक पारमिता भी सिद्ध करने में लगे रहे । उन्होंने अघोरेश्वर के आदेशानुसार देश के स्थावर और जँगम तीर्थों का साक्षात्कार भी किया ।
आजकल आप अपने बनोरा, रेणुकूट, शिवरीनारायण, आदर, डभरा तथा आश्रमों में रमते रहते हैं । साक्षात्कार भी किया ।आजकल आप अपने बनोरा, रेणुकूट, शिवरीनारायण, आदर, डभरा तथा आश्रमों में रमते रहते हैं । अघोरेश्वर के प्रिय मुड़िया योगी अवधूत प्रियदर्शी राम जी के जीवन वृत्त के विषय में अधिकाँश जानकारी के अभाव में हम यहाँ पर अभी इतना लिखकर ही सन्तोष कर रहे हैं । जानकारी एकत्र करने की प्रक्रिया जारी है । हम बाद में आपके विषय में अलग से अधिकतम जानकारी देने का प्रयास करेंगे । हमारा योगीराज, अवधूत बाबा प्रियदर्शी राम जी के श्री चरणों में कोटिशः प्रणाम । ईश्वरानुग्रँहादेव पुँसानद्वेत वासना ।
महद्भयपरित्राणा विप्राणामुपजायते ।।
( महान भय (मृत्यु भय) से रक्षा करनेवाली अद्वेत की वासना मनुष्यों में, विप्रों में ईश्वर के अनुग्रह से ही उत्पन्न होती है । )
सन १९७३ का मई का महीना था । अघोरेश्वर भगवान राम जी जशपुर के आश्रमों में आये हुए थे । वे कभी सोगड़ा आश्रम में निवास करते तो कभी गम्हरिया में । कभी नारायणपुर भी चले जाते थे । जशपुर में सभी जानते रहते थे कि अघोरेश्वर आज कहाँ हैं । जिसको जब समय सुविधा होती अघोरेश्वर का सानिध्य प्राप्त करने के लिये पहुँच जाते थे । अघोरेश्वर भी उन दिनों सबको भरपूर समय देते । सबकी सुनते । सबको कहते । वार्तालाप की यह कड़ी घँटों चलती । इसी बीच श्रद्धालुओं, भक्तों , शिष्यों की शिक्षा भी चलती रहती । वे जिसको जो सिखाना चाहते बात बात में सिखा देते । उनकी अचिंत्य लीला वही जानते थे ।
लेखक का विवाह जशपुर के राज ज्योतिषी महापात्र परिवार में सात आठ माह पूर्व ही हुआ था । वहीं आदरणीय बाबू पारस नाथ जी सहाय से भेंट हुई थी । साधु पुरुष सहाय बाबू जब भी भेंट होती लेखक को अघोरेश्वर का दर्शन करने तथा दीक्षा की याचना करने के लिये अभिप्रेरित करते रहते थे । लेखक भी बचपन से ही साधु सँगत में रस पाते थे । लेखक पूर्व में दो तीन बार अघोरेश्वर के दर्शन की मँशा से जशपुर की यात्रा कर चुके थे, पर दर्शन नहीं हो पाया था । जब तक लेखक जशपुर पहुँचते अघोरेश्वर का बनारस प्रस्थान हो चुका होता था ।
इस बार समय पर समाचार मिला था । लेखक तत्काल चल पड़े थे । तीन मई १९७३ को गम्हरिया आश्रम के सामने उस महा विभूति का दर्शन लाभ हुआ । जीवन धन्य हो गया । दर्शन मात्र से हृदय में यह भाव जागा कि जिस पथ प्रदर्शक, शिक्षक, ज्ञानी, ध्यानी, गुरु की खोज आज तक लेखक करते आ रहे थे वे यही हैं । इन्ही की शरण में, छत्रछाया में इस जीवन का कल्याण होना है । भटकन समाप्त हो गया ।
उसके बाद लगभग सालभर का समय बीत गया । अघोरेश्वर का या तो दर्शन लाभ नहीं हुआ या दर्शन हुआ भी तो उचित समय, सुयोग नहीं मिला कि अघोरेश्वर से शरण हेतु विनय किया जा सके ।
सन् १९७४ ई० के नवम्बर माह की १९ तारीख को अघोरेश्वर का सोगड़ा आश्रम में पुनः दर्शन लाभ हुआ । समय सुयोग सब अनुकूल थे । लेखक अघोरेश्वर के श्री चरणों में विनयावनत होकर अपनी शरण में लेने हेतु निवेदन किया । लेखक का निवेदन तत्काल स्वीकार हो गया । आदेश हुआ कि दूसरे दिन यानि दि. २०. ११. १९७४ को सुबह छै बजे उनके चरणकमल की छाँह लेखक के सिर पर होगी । उस दिन जशपुर लौट जाने का निर्देश हुआ ।
उस दिन का बचा हुआ भाग और रात्री कैसे कटी अभिव्यक्त कर पाना दूष्कर कार्य है । शरीर इतना हल्का हो गया था कि पाँव मानो जमीन पर नहीं पड़ रहे थे । मन स्वतः अन्तर्मुखी होता जा रहा था । न किसी से बात करने का मन होता था और न किसी को देखने का । रात्री अर्ध सुसुप्ति की अवस्था में कब कट गई पता ही नहीं चला । भोर में चार बजे बिस्तर त्याग दिया । नित्यकर्म से निवृत होकर दीक्षा संस्कार हेतु निर्दिष्ट सामग्री के साथ सुबह पाँच बजे सोगड़ा आश्रम जाने के लिये तैयार हो गया ।
जशपुर नगर से सोगड़ा आश्रम की दूरी तेरह किलोमीटर है । उन दिनों कोई पव्लिक ट्राँसपोर्ट की सुविधा उपलब्ध नहीं थी । लोग पैदल जाते थे या सायकल से जाते थे । बीच में एक नदी पड़ती है, जिसपर उन दिनों पुल नहीं बना था । जशपुर से सोगड़ा इन बाधाओं को पार कर पहुँचने में ४५ मिनट से एक घँटा का समय लग जाता था । लेखक भोर में पाँच बजे जशपुरनगर से सोगड़ा के लिये चलकर छै बजे के कुछ मिनट पहले अघोरेश्वर के चरणों में पहुँच गये ।
सोगड़ा आश्रम के बाहरी गेट से थोड़ा ही आगे एक विशाल महुवे का वृक्ष खड़ा था । वृक्ष के नीचे अलाव जल रहा था । अघोरेश्वर अपनी चिर परिचित मनमोहिनी मुद्रा में वृक्ष और अलाव के बीच रखी कुर्सी पर विराजमान थे । अघोरेश्वर के श्रीचरणों में प्रणाम निवेदन करते ही उनके श्रीमुख पर स्मित की रेखा उभर आई । बोलेः “आ गये हो बबुआ । बइठ ।”
” जी बाबा । ”
कुछ समय उपराँत उन्होने कहाः ” अच्छा चल मँदिर में चल ।”
लेखक मँदिर की ओर चले । अघोरेश्वर भी उठे पर कहाँ गये नहीं पता ।
लेखक के मँदिर पहुँचने के तीन चार मिनट के भीतर अघोरेश्वर भी मँदिर पहुँच गये ।दीक्षा सँस्कार के पश्चात लेखक को लौट जाने का आदेश हो गया । लेखक सोगड़ा से जशपुर लौटे तथा उसी दिन सँध्या समय निर्देशानुसार उन्होने जशपुर भी छोड़ दिया ।येनेदं पुरितं सर्वमात्मनैवात्मनात्मनि ।
निराकारं कथं वन्दे ह्याभिन्नं शिवमव्ययम् ।।
( यह दृश्यमान सम्पूर्ण जगत जिस आत्मा द्वारा, आत्मा से, आत्मा में ही पूर्ण हो रहा है, उस निराकार ब्रह्म का, मैं किस प्रकार वन्दन करुँ क्योंकि वह जीव से अभिन्न है, कल्याण स्वरुप है, अव्यय है । )
9…गुरुदेव निवास, पड़ाव वाराणसी
एको व्यापक अव्यय सर्वज्ञ परम रम्य, हर कारण सृष्टि स्थिति, नित्य व्यापक आद्या ।
अघोर घोर महाकपालेश्वर, भुक्ति मुक्ति दातार, तिनके पद बन्दन करौं, कोटी कोटी प्रणाम ।…9…। वन्दे गुरुपद द्वंद्वँ, वाङ् मनश्चित्तगोचरम् ।
।। श्वेत रक्तप्रभाभिन्नं, शिवशक्त्यात्मकं परम् ।।
मैं शक्ति से युक्त शिव, वाणी, मन, चित्त आदि इन्द्रियों में व्याप्त, श्वेत रक्त प्रभा से अभिन्न श्रेष्ठ गुरुपदकमलयुगल की वन्दना करता हूँ ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी के चरण कमल की वन्दना कर उनके मुखारबिन्द से निनादित वाणी में से गुरुतत्व का सूत्र सँकलित है । अघोरेश्वर कहते हैंः
” गुरु कोई खास हाड़, चाम के नहीं होते या कोई खास जाति, कास्ट के व्यक्ति नहीं होते हैं । गुरु तो वही होता है जिसे देखने पर हमें ईश्वर याद आये, जिसे देखने पर माँ जगदम्बा के चिँतन की तरफ उत्सुकता हो ।
आप तो अपने कहीं , किसी भी पीठ में चाहे जड़ हो या चेतन हो, उसमें गुरुपीठ स्थापित करके, उस गुरुत्व आकर्षण की तरफ खिंचा सकते हैं । पर कभी स्थापित ही नहीं किये हों तो उस गुरुत्व के आकर्षण की तरफ आप जा भी नहीं सकते । भले आप ब्रह्मा, विष्णु, शिव या बहुत बड़े व्यक्ति भी हो सकते हैं । मगर अपनी निजी जो प्राणमयी भगवती हैं, उनके साथ आपकी तन्मयता नहीं हो सकती ।”
9…१ दिसम्बर १९९२ को दोपहर के १.१० बजे पूज्य बाबा का पार्थिव शरीर लेकर भारतीय वायु सेना का विशेष विमान बनारस की हवाई पट्टी पर उतरा । उस समय वहाँ पर उपस्थित अनगिनत शोक विव्हल श्रद्धालुओं ने अपनी आँखों में आँसु भरकर अपने मन प्राण के अधिश्वर, अपने मसीहा, अपने माँ गुरु के पार्थिव शरीर का स्वागत किया । उस जगह हृदय विदारक दृश्य उपस्थित हो गया था । दो सौ से भी अधिक वाहनों के काफिले के बीच पार्थिव शरीर को फूल मालाओं से आच्छादित एक खुली मिनी ट्रक में पड़ाव आश्रम तक लाया गया । उसी ट्रक में बाबा के सभी प्रमुख शिष्य बैठे थे ।
पूज्य बाबा की पूर्व इच्छानुसार मालवीय पुल के पूरब, गँगा के दक्षिण तट पर सूजाबाद, डूमरी गाँव के पश्चिम, पूर्व निर्दिष्ठ स्थल पर लगभग छै एकड़ जमीन पर अँतिम संस्कार की तैयारियाँ बाबा सिद्धार्थ गौतम राम और अवधूत भगवान राम कुष्ट सेवा आश्रम, पड़ाव के तत्कालीन उपाध्यक्ष श्री हरि सिनहा जी के निर्देशन में किया जाने लगा था । माननीय श्री चन्द्रशेखर जी पूर्व प्रधान मँत्री, भारत सरकार अपने पुत्र श्री पँकज एवँ पुत्रबधु श्रीमती रश्मि जी के साथ सुरक्षा व्यवस्था की परवाह न करते हुए व्यवस्था में सक्रीय रुप से भागीदारी करते रहे ।
२ दिसम्बर १९९२ को प्रातः ८ बजे पूजन तथा आरती के पश्चात देश विदेश से आये हुए बाबा के भक्तों का दर्शन पूजन का सिलसिला जो शुरु हुआ वह देर रात तक चला ।
३ दिसम्बर १९९२ दिन बृहस्पतिवार को प्रातः स्नानोपराँत वस्त्र, गँध, विभूति तथा पुष्प माला अर्पित कर , पूज्यनीया माता जी के दर्शन कर लेने के बाद पार्थिव शरीर की अँतिम यात्रा प्रारँभ हुई । हजारों की संख्या में श्रद्धालु और भक्तगण ” अघोरान्ना परो मँत्रो नास्ति तत्वँ गुरो परम” का कीर्तन करते हुये पीछे पीछे स्मृति स्थल तक गये, जहाँ पूज्य बाबा के पार्थिव शरीर की अन्त्येष्ठी की जानी थी । जिस नवनिर्मित वेदी पर अन्त्येष्ठी होनी थी उस स्थान की पूजा यन्त्रवत पहले ही की जा चुकी थी । उक्त यँत्र वेदी पर बेल और चन्दन की लकड़ी तथा सुगन्धित बनस्पतियों से सजाई गई चिता पर बाबा के पार्थिव शरीर को उत्तराभिमुख पद्मासन की मुद्रा में ही आसीन किया गया । विधिवत सारी औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद पूज्य सिद्धार्थ गौतम राम जी, पीठाधीश्वर अघोरपीठ, क्रींकुण्ड, बाबा कीनाराम स्थल , शिवाला वाराणसी ने चिता की परिक्रमा करके पुर्वान्ह ११.५० बजे मुखाग्नि दी । परम पूज्य अघोरेश्वर का नश्वर शरीर अग्निशिखाओं में लिपटकर ज्यों ज्यों पंच तत्वों में विलीन होता गया शोक की तरंगें दिशाओं को भी अपने में समेटती गईँ । लेखक उक्त अवसर पर अन्त्येष्ठी स्थल पर उपस्थित थे । अभिव्यक्ति की भी सीमा उल्लंघित हो जाय ऐसा शोकाकुल भक्तों का हुजूम वहाँ उपस्थित था ।
अघोरेश्वर का पार्थिव शरीर पंचतत्त्वों में एकाकार हो गया । वे इन लौकिक चक्षुओं से दृश्यमान नहीं रहे । हमारे पास दिव्य दृष्टि नहीं है कि हम उनके शरीर का दर्शन लाभ कर सकें । हमारे लिये तो यह क्षति अपूरणीय है । उन्होंने कहा है कि वे सर्वत्र हैं, ढ़ूँढ़ने पर मिलेंगे भी, पर वे तो अब तक सहज सुलभ थे । अब यह हमारे ऊपर है कि हम उन्हें कैसे ढ़ूँढ़ते हैं और कैसे पाते हैं । अब का उनसे मिलना हमारी व्यक्तिगत थाती होगी । उनके रहते हमने मौका गँवा दिया, अब तो जीवन भर का रोना ही शेष रह गया है ।यहाँ पर एक बड़े ही महत्वपूर्ण अध्याय की समाप्ति हो जाती है । जीवन तो चलता ही रहेगा । अगली पीढ़ी के विषय में बहुत कुछ लिखा जा चुका है । अब जो होगा वह अघोरपथ की अघोरेश्वर के बिना विशिष्ठताहीन यात्रा होगी । हम इस आशा के साथ अपनी लेखनी को विराम देते हैं कि साधना और तप की कसौटी पर खरे उतरने वाले सन्त महापुरुष अघोरेश्वर की शिष्य परम्परा में हैं जिनकी सुगन्धि उत्तरोतर फैल रही है । आज अवधूत हैं कल अघोरेश्वर होंगे । हम अगली बार उनकी लीला का स्मरण करेंगे ।
अघोरेश्वर के श्री चरणों में इस शिष्य का अनन्तकोटी प्रणाम ।
हरि ॐ तत्सत् इति |